पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१८३

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शून्य सहज मन सुरति ते प्रगट मई एक ज्योति । बलिहारी ता पुरुख छवि निरालंव जो होति ॥६॥ एकै काल सकल संसारा । एक नाम है जगत पियारा॥ तिया पुरुख कछु कथो न जाई । सर्व रूप जग रहा समाई ॥ रूप अरूप जाय नहिं वोली । हलुका गरुअा जाय न तोली ॥ भूख न तृखा धूप नहिं छाँहीं। दुख सुख रहित रहे ते माही अपरम परम रूप मगु नहिं तेहि संख्या श्राहि । कहहि कवीर पुकारि कै अद्भुत कहिए ताहि ॥७॥ राम गुण न्यारो न्यारो न्यारो। अवुझा लोग कहाँ लौं वू बूझनहार विचारो॥ केते रामचंद्र तपसी से जिन जग यह विरमाया। केते कान्ह भए मुरलीधर तिन भी अंत न पाया। मच्छ कच्छ वाराह स्वरूपी वामन नाम धराया। केते वौध भए निकलंकी तिन भी अंत न पाया। केतिक सिध साधक संन्यासी जिन वन वास वसाया। केते मुनि जन गोरख कहिए तिन भी अंत न पाया । जाकी गति ब्रह्मै नहिं पाए शिव सनकादिक हारे। ताके गुन नर कैसे पैहो कहै कवीर पुकारे ॥८॥ अव हम जाना हो हरि वाजी को खेल। डंक वजाय देखाय तमाशा बहुरि सो लेत सकेल ॥ हरि बाजी सुर नर मुनि जहँड़े माया चेटक लाया। घर में डारि सबन भरमाया हृदये ज्ञान न आया ।। बाजी झूठ वाजीगर साँचा साधुन की मति ऐसी। कह कवीर जिन जैसी समझी ताकी गति भइ-तैसी ॥९॥ छेम कुसल औ सही सलामत कहहु कौन को दीन्हाहो। आवत जात दुनों विधि लूटे सरव संग हरि लीन्हा हो.॥