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पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१८७

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सत्रह संख्य पर अधर दीप जहँ शब्दातीत विराजै । निरतै सखी बहू विध शोभा अनहद वाजा वाजै ।। ताके ऊपर परम धाम है मरम न कोई पाया। 'जो हम कही नहीं कोउ मान ना कोई दूसर आया । वेदन साखी सव जिउ अरुझे परम धाम ठहराया। फिरिफिरिभटकैआप चतुरढ वह घर काहु न पाया ॥ जो कोइ होइ सत्य का किनका सो हम का पतिआई । और न मिल कोटि कर थाकै बहुरि काल घर जाई॥ सोरह संख्य के आगे समरथ जिन जग मोहिं पठाया। कहै कवीर आदि की वानी वेद भेद नहिं पाया ॥१६॥ चला जव लोक को लोक सव त्यागिया ___ हंस को रूप सतगुर वनाई । भुंग ज्यों कीट को पलटि भृग किया

आप सम रंग . दै लै उड़ाई ॥

छोड़ि नासूत मलकूत को पहुंचिया विश्नु की ठाकुरी दीख जाई । इंद्र कुवेर जहँ रंभ को नृत्य है देव तेतीस कोटिक रहाई ।। • छोड़ि वैकुंठ को हंस आगे चला शून्य में ज्योति जगमग 'जगाई। ज्योति परकाश में निरंखि निस्तत्व को

. श्राप . निर्भय हुआ भय मिटाई ॥

अलख निरगुन कर वेद जेहि प्रस्तुती.. . . . . .. तीनहूँ · देव . को . है पिताई। तिन परे श्वेत मूरति धरे · भगवान : ..

भाग. का. आन : तिनको : रहाई ।।