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( १७० ) चार मुक्काम पर खंड सोरह कहैं अंड की छोर ह्याँ ते रहाई । अंड के परे असथान आचिंत को निरखिया हंस जब उहाँ जाई॥ सहस औ द्वादसै रुद्र हैं संग में । करत कल्लोल अनहद वजाई । तासु के बदन की कौन महिमा कहीं भासती देह अति नूर छाई ॥ महल कंचन बने मनिक तामें जड़े . बैठ तह कलस आखंड छाजै । अचिंत के परे अस्थान सोहंग का हंस छत्तीस तहवा विराजै ॥ नूर का महल औ नूर की भूमि है तहाँ आनंद सो द्वंद भाजै। करत कल्लोल वहु भाँति से संग यह हंस सोहंग के जो समाजै ॥ हंस जव जात षट चक्र को वेध के सात मुक्काम में नजर फेरा । परे सोहंग के सुरति इच्छा कही साहस वामन जहाँ हंस हेरा॥ रूप की राशि ते रूप उनको बना हिंदु जी नहीं उपमा निवेरा । सुरति से भेटिकै सब्द को टेकि चढि देखि मुक्काम अंकूर केरा ॥ शून्य के वीस में विमल वैठक जहाँ सहज अस्थान है गैव केरा।