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पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१९५

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( १७७ ) कोटिन भानु हंसको रूपा, धुन है वहँ की अजव अनूपा। हंसा करत चवर सिर भूपा, विन कर चवर दुलारा है। हंसा केल सुनो मन लाई, एक हंस के जो चित आई। दूजा हंस समुझ पुनि जाई, विन मुख वैन उचारा है ।। तेहि आगे निःलोक है भाई, पुरुख अनामी अकह कहाई। जा पहुँचे जानेंगे वाही, कहन सुनन ते न्यारा है। रूप सरूप कळू वह नाहीं, ठौर ठाँव कुछ दीसै नाहीं। अरज तूल कुछ दृष्टि न आई, कैसे कहूँ सुमारा है। जा पर किरपा करिहै साई, गगनी मारग पावै ताहीं।। सत्तर परलय मारग माहीं, जव पावै दीदारा है। कह कवीर मुख कहा न जाई, ना कागद पर अंक चढ़ाई। मानों गूंगे सम गुड़ खाई, सैनिन वैन उचारा है ॥२१॥ चुवत अमीरस भरत ताल जहँ सब्द उठे असमानी हो। सरिता उमड़ सिंधु को सोखै नहि कछु जात वखानी हो । चाँद सुरज तारागण नहिं वहँ नहिं वह रैन विहानी हो । वाजे बजे सितार वाँसुरी ररंकार मृटु वानी हो। कीट झिलमिली जहँ वह झलकै विन जल वरसत पानी हो। शिव अज विष्णु सुरेस सारदा निज निज मति अनुमानी हो। दस अवतार एक तत राजे असतुति सहज सयानी हो। कहें कवीर भेद की वात विरला कोई पहिचानी हो। कर पहिचान फेर नहि आवै जम की जुलमी खानी हो ॥२२॥ सखिया वा घर सव से न्यारा जहँ पूरन पुरुख हमारा। जहँ नहिं सुख दुख साँच झूठ नहि पाप न पुन पसारा ॥ नहि दिन रैन चंद नहिं सूरज विना जोति उँजियारा। नहिं तहँ ज्ञान ध्यान नहिं जप तप वेद कितेव न वानी ॥ करनी धरनी रहनी गहनी ये सव उहाँ हेरानी।