( १७८ ) घर नहिं अधर न वाहर भीतर पिंड ब्राँड कछु नाहीं। पाँच तत्व गुन तीन नहीं तहँ साखी सब्द न ताहीं ।। मूल न फूल वेल नहिं वीजा विना वृच्छ फल सोहै। ओहं सोहं परध उरध नहिं स्वासा लेखन को है ॥ नहि निरगुन नहिं सरगुन भाई नहिं सूछम अस्थूल । नहिं अच्छर नहिं अवगत भाई ये सब जग के भूल ॥ जहाँ पुरुख तहवा कछु नाहीं कह कबीर हम जाना । इमरी सैन लखै जो कोई पावै पद निरवाना ॥२३।। सुरत सरोवर न्हाइ के मंगल गाइए । दरपन सब्द निहार तिलक सिर लाइए । चल हंसा सतलोक बहुत सुख पाइए । परसि पुरुख के चरन वहुरि नहिं आइए । अमृत भोजन तहाँ अमी अँचवाइए । मुख में सेत तँवूल सब्द लौ लाइए ।। पुहुप अनूपम वास हंस घर चलि जिए । अमृत कपड़े ओदि सुकुट सिर दीजिए ।। वह घर बहुत अनंद हंसा सुख लीजिर । वदन मनोहर गात निरख के जीजिए । दुति विन मसि विन अंक सो पुस्तक वॉचिए। विन करताल बजाय चरन विन नाचिए ।। विन दीपक उजियार पागम घर देखिए । ग्बुल गए सब्द किवाड़ पुरुख से भेटिए । लाहब सन्मुख होय भक्ति चित लाइए । मन मानिक सँग हंस दरस तहँ पाइए ॥ कह कर यह मंगल भाग न पाइए । गुरु संगत ला लाय हंस चल जाइए ।।२।।
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