पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१९९

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__ ( १८१ ) दो सुर चले सुभाव सेती नाभी से उलटा आवता है। विच इंगला पिंगला तीन नाड़ी सुपमन से भोजन पावता है। पूरक करै कुंभक करै रेचक्क करै झरि जावता है। कायम कवीरा या भूलना जा दया भूल परे पछितावता है ॥२९॥ मुरशिद नैनों वीच नवी है। स्याह सपेद तिलों विच तारा अविगत अलख रखी है ॥ आँखी मढे पाँखी चमकै पाँखी मद्धे द्वारा। तेहि द्वारे दुरवीन लगावे उतरे भौ-जल पारा ॥ सुन्न सहर में वास हमारा तहुँ सरवंगी जावै । साहव कविर सदा के संगी सब्द महल लै आवै ॥३०॥ ___कर नैनों दीदार महल में प्यारा है। काम क्रोध मद लोभ विसारो, सील संतोख छमा सत धारो।। मद्यमांस मिथ्या तजिडारो हो ज्ञानघोड़ेअसवार भरमसे न्यारा है धोती नेती वस्ती पाओ, आसन पदम जुगुत से लाओ। कुंभक कर रेचक करवाओ पहले मूल सुधार कार्य हो सारा है मूल कँवल दल चतुर वखानो, जाप कलिंग लाल रंग मानो। देव गनेश तहुँ रोपा थानो, ऋधि सिधि चवर दुलारा है। स्वाद चक्र षट दल विस्तारो, ब्रह्म सवित्री रूप निहारो। उलटि नागिनी. का सिर मारो, तहाँ शब्द ओंकारा है। नाभी अष्ट कँवल दल साजा, सेत' सिंहासन विष्णु विराजा । जाप हिरिंग तासु सुख गाजा, लछमी शिव आधारा है। द्वादश कँवल हृदय के माँहीं, संग गौरि शिव ध्यान लगाई। सोहं शब्द तहाँ धुन छाई; गन कर जैजैकारा है।