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पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२०

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( १४ ) सोचते हैं, प्रवहमान मरुत् , सुशीतल जल, और सूर्यदेव की ज्योतिर्माला तुल्य भगवद्भक्ति पर प्रत्येक मानव का समान अधिकार है। भारतवर्ष के उत्तर काल में वे पहले महात्मा हैं, जो नितांत उदार हृदय लेकर सामने आते हैं और उसी सहृदयता से जाट, नाई, जोलाहे और चमार को अंक में ग्रहण करते हैं, जिस प्यार से किसी सजातीय ब्राह्मण बालक को वे हृदय से लगाते हैं। आँख उठाकर देखिए, किसकी शिप्यमंडली में एक साथ इतने महात्मा और मतप्रवर्तक हुए जितने कि इस महानुभाव के सदुपदेश-श्रालोक से आलोकित सत्पुरुषों में पाए जाते हैं। जब इस महात्मा की पूत कार्या वली पर दृष्टि डालते हैं, और फिर सुनते हैं कि उनके सन्नि- कट कोई मनुप्य जोलाहा होने के कारण नहीं पहुँच सका, तो हृदय को बड़ी व्यथा होती है। यदि रैदास चमार उनके द्वारा अंगीकृत हुया तो कबीर जोलाहा कैले तिरस्कृत हो सकता था? वास्तविक बात यह है कि इन कथायों के गढ़नेवाले संकुचित विचार के कतिपय वे ही श्रदरदर्शी जन हैं, जिनके अविवेक से प्रति दिन हि समाज का हाल हो रहा है। मुझे इन कथायों का स्वीकार करना युक्तिसंगत नहीं शान हाता । मैं महसिन फनी के इन विचार से सहमत हैं कि "याध्या- त्मिक पथप्रदर्शक मिले, इस इच्छा से कबीर साहव हिंदू साधुया एवं मुसल्मान फकीरां दोनों के पास गए और अंत में स्वामी रामानंद के शिप्य हुए।" जो लोग मणिकर्णिकाघाट की घटना ही को मुत्य मानते है, उनले में कोई विवाद नहीं करना चाहना; किंतु इतनी मिनीत प्रार्थना अवश्य करना कि इस घटना को लव्य कर जो मनानी नजानयक्ष से "पुनंतु मां मान-पादनंगवः" ग्रामय पर गर्व फरने , उनकी मनीक्षिा चल गय करने में ही पर्य-