चसित होती है, अथवा वे इस वाक्य के मर्म-ग्रहण की भी कुछ चेष्टा करते हैं। प्रति वर्प सहस्रों हिंदू हमारे समाज अंक को शून्य करके अन्य धर्म की शरण ले रहे हैं। प्रति दिन हिंदू धर्म माननेवालों की संख्या क्षीण होती जा रही है। क्या उनके विपय में उनका कुछ कर्तव्य नहीं है? क्या, स्नान, ध्यान, पूजा, पाठ, व्रत, उपवास करने में ही पुण्य है ? क्या धर्म से च्युत होते हुए प्राणियों की संरक्षा में पुण्य नहीं है ? क्या कुल गौरव, मान-मर्यादा, वर्णाश्रम धर्म का संरक्षण ही सत्कर्म है ? क्या नित्य स्वधर्म-परित्याग-परायण अधःपतित जातियों का समुद्धार सत्कर्म नहीं है ? यदि है तो कितने महोदय ऐसे हैं जिन्होंने आत्मत्यागपूर्वक निर्भीक चित्त से इस मार्ग में पद- विन्यास किया है ? पदरेणु की बात जाने दीजिए, मैं पूछता हूँ कि कितने लोगों का हृदय इतना पुनीत है, शरीर इतना पुण्य- भय है, स्वयं आत्मा इतनी पवित्रीभूता है कि जिनके संस्पर्श से अपावन भी पावन हो जाता है ? जव हम स्वयं अपावन को छूकर आज अपवित्र होते हैं, तो हमको "पुनंतु मां ब्राह्मण- पादरेणवः" वाक्य मुख पर लाते हुए हाजित होना चाहिए। यदि नहीं, तो एक आत्मोत्सर्गी महापुरुप की भाँति कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होना चाहिए और यह दिखला देना चाहिए कि स्वामी रामानंद का आध्यात्मिक वल अव भी भारतवासियों में शेष है, अव भी अपावन को पावन वनाने की बलवती शक्ति उनमें विद्यमान है, भारत वसुंधरा अभी ऐसे अलौकिक रत्नों से शून्य नहीं हुई है। संसार-यात्रा कवीर साहव अपने जीवन का निर्वाह अपना पैतृक व्यय- साय करके ही करते थे, यह बात उनके सभी जीवनी लेखकों ने स्वीकार की है। उनके शब्दों में भी ऐसे वाक्य बहुत
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