पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२०९

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( १९१ ) बड़ छल रावण से गए वीती। लंका रह कंचन की भीती। दुर्योधन अभिमानहिं गयऊ । पंडव केर मरम नहिं पयऊ ।। माया के डिभ गे सव राजा । उत्तम मध्यम वाजन. बाजा ।। छाँच कवित धरनि समाना । याको जीव परतीत न आना ।। कह लो कहाँ अचेते गयऊ । चेत अचेत झगर एक भयऊ । ई माया जंग. मोहिनी मोहिसि सव जग धाय । हरिचंद सत के कारने घर घर गयो विकाय ॥४५॥ या माया रघुनाथ कि बौरी खेलन चली अहेरा हो। चतुर चिकनिया चुनि चुनि मारै काहु न राखै नेरा हो । मौनी वीर निगंवर मारे ध्यान धरै ते जोगी हो । जंगल में के जंगम मारे माया किनहुँ न भोगी हो॥ वेद पढ़ता पाँड़े मारे पुजा करते स्वामी हो । अर्थ विचारत पंडित मारे वाँध्यो सकल लगामी हो॥ शृंगी ऋषि वन भीतर मारे सिर ब्रह्मा के फोरी हो। नाथ मछंदर चले पीठ दै सिंहलहूँ में चोरी हो। साकत के घर कर्ताधर्ता हरि-भक्तन की चेरी हो। कहै कीर सुनौ संतो ज्यों श्रावै त्यों फेरी हो ॥४॥ नागिन ने पैदा किया नागिन डॅसि खाया। कोइ कोइ जन भगत भए गुरु सरन तकाया । शृंगी ऋषि भागत भए वन माँ वसे जाई । आगे नागिनि गाँसि के वोही इंसि खाई ।। नेजा धारी शिव बड़े भागे कैलासा। जोति रूप परगट भई परवत परकासा ॥ सुर नर मुनि जोगी जती कोइ वचन न पाया। . नोन तेल हूँदै, नहीं कच्चै धरि खाया ॥ नागिन डरपै संत से उहवाँ नहिं जावै। कह कीर गुरु-मंत्र से आपै मरि जावै ॥४७॥