पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १९९ ) भला बना संजोग प्रेम का चोलना । तन मन अरूपौं सीस साहव हँस वोलना ।। जो गुरु रूठे होय तो तुरत मनाइए। हुइए दीन अधीन चूकि वकसाइए ।। जो गुरु होय दयाल दया दिल हेरिहै । कोटि करम कटि जायँ पलक छिन फेरिहें । कह कवीर समुझाय समुझ हिरदै धरो। जुगन जुगन कर राज कुमति अस परिहरो ॥६४॥ भाई कोइ सतगुरु संत कहावै, नैनन अलख लखावै । डोलत डिगै न वोलत विसरै जव उपदेस बढ़ावै ।। प्रान पूज्य किरिया ते न्यारा सहज समाधि सिखावै। द्वार न सँधै पवन न रोकै नहिं अनहद अरुझावै ।। यह मन जाय जहाँ लग जवहीं परमातम दरसाये। करम करै निहकरम रहै जो ऐसौ जुगुत लखावै ।। सदा विलास त्रास नहिं मन में भोग में जोग जगावै। धरती त्यागि अकासहुँ त्यागै अधर मँडइया छावै ।। सुन्न सिखर के सार सिला पर आसन अचल. जमावै ॥ भीतर रहा सो बाहर देखै दूजा दृष्टि न आवै । कहत कबीर वसा है हंसा आवागमन मिटावै ॥६५|| साधा सो सतगुरु मोहिं भावै । सत्त नाम का भर भर प्याला आप पिवे मोहिं प्यावे॥ मेले जाय न महँत कहावै पूजा भेंट न लावै । परदा दूर करै आँखिन का निज दरसन दिखलावै॥ जाके दरसन साहव दरसें अनहद शब्द सुनावै । ': मायां के सुख दुख कर जाने संग न सुपन चलावे · निसि दिन सत-सँगति में राचै शब्द में सुरत स- कह कबीर ताको भय नाहीं, निरभय पद परमा: 17