पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२२१

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वेदांतवाद साधो सतगुरु अलख लखाया आप आप दरसाया। वीज मध्य ज्यों वृच्छा दरसै वृच्छा मद्धे छाया। परमातम में आतम तैसे श्रातम मद्धे माया ॥ ज्यों नभ में सुन्न देखिए सुन्न अंड आकारा। निह अच्छर तें अच्छर तैले अच्छर छर विस्तारा॥ ज्यों रवि मद्ध किरिन देखिए किरिन मध्य परकासा॥ परमातम में जीव ब्रह्म इमि जीव मध्य तिमि स्वाँसा। स्वाँसा भद्ध शब्द देखिए अर्थ शब्द के माहीं। ब्रह्म ते जीव जीव ते मन इमि न्यारा मिला सदाहीं।। आपहि वीज वृच्छ अंकूरा आप फूल फल छाया । आपहि सूर किरिन परकासा आप ब्रह्म जिव माया ।। अंडाकार सुन्न नभ प्रापै स्वॉस शब्द अरथाया। निह आच्छर अच्छर छर आपै मन जिव ब्रह्म समाया। आतम से परमातम दरसै परमातम में झाँई। झाँई में परिछाँई दरसै लखै कीरा साई॥ पानी विच मीन पियासी, मोहिं सुन सुन आवत हाँसी। आतम ज्ञान विना सव सूना, क्या मथुरा क्या कासी॥ घर में वस्तु धरी नहिं सूझै, बाहर खोजत जासी । मृग का नाभि माहिं कस्तूरी, वन वन खोजत जाती। कहै कबीर सुनो भाई साधो सहज मिलै अविनासी ।७५। नंदा झलकै येहि घट माहीं। अंधी आँखिन सूझै नाहीं॥ येहि घट चंदा येहि घट सूर । येहि घट गाजै अनहद तूर ॥ येहि घट वाजै तवल निसान । वहिरा शब्द सुनै नहिं कान ।। जव लग मेरी मेरी करै । तव लग कांज न एको सरै॥ जब मेरी ममता मरि जायः। तव प्रभु काज सँवारे आय । मृग सुनो भाई साबाजी आँखिन सूर।