पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२२५

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( २०७ ) वहुरंगी प्यारा सब से न्यारा सव ही में एक भेख है जी। कबीर मिला भुरशिद उसमें हम तुम नाहीं वह एक है जी॥८६॥ असमान का आसरा छोड़ प्यारे उलटि देखो घट अपना जी। तुम आप में आप तहकीक करो तुम छोड़ो मन की कल्पना जी। विन देखे जो निज नाम जपे सो कहिए रैन का सपना जी। - कवीर दीदार परगट देखा तव जाप कौन का जपना जी ॥८॥ अपनपो आप ही विसरो। जैसे सोनहा काँच मँदिर में भरमत पूँकि मरो। ज्यों केहरि वयु निरखि कूप जल प्रतिमा देखि परो । ऐसेहि मदगज फटिक शिला पर दसननि आनि अरो। भरकट मुठी स्वाद ना विसरे घर घर नटत फिरो । कंह कवीर ललनी के सुवना तोहि कौने पकरो ॥८८॥ साम्यवाद आपुहिं करता भे करतारा । वहु विधि वासन गढ़े कुम्हारा॥ विधता सवै कीन यक ठाऊँ। अनिक जतन कै वनक वनाऊँ। जठर अग्नि महँ दिय परजाली। तामें आप भए प्रतिपाली ॥ बहुत जतन के बाहर आया । तब शिव शक्ती नाम धराया । घर को सुत जो होय अयाना । ताके संग न जाय सयाना ॥ साँची वात कहीं मैं अपनी। भया दिवाना और कि सपनी ।। गुप्त 'प्रगट है एकै मुद्रा । काको कहिए ब्राह्मन शुद्रा॥ झूठ गरव भूलै मति कोई । हिदू तुरुक झूठ कुल दोई॥ जिन यह चित्र वनाइया साँची सूरत ढारि। कह कवीर ते जन भले जे तेहि लेहि विचारि ॥८॥ जो तोहि कर्ता वर्ण विचारा । जन्मत तीन दंड अनुसारा॥ जन्मत शूद्र भए पुनि शूद्रा । कृत्रिम जनेउघालि जगढुंद्रा ।।