पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२२८

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( २१० ) सरिर सरोवर वेदी करिहै ब्रह्मा वेद उचारा । रामदेव सँग भाँवर लैहों धन धन भाग हमारा । सुर तेतीसो कौतुक आए मुनिवर सहस अठासी । कह कबीर मोहिं व्याहि चले हैं पुरुष एक अविनासी ॥९७॥ हरि मोर पीव मैं राम की वहुरिया। राम मोर वड़ा मैं तन की लहुरिया ॥ हरि मोर रहँटा में रतन पिउरिया । हरि को नाम ले कातल वहुरिया ।। छ मास ताग बरस दिन ककुरी । लोग बोले भल कातल वपुरा ॥ कहै कवीर सूत भल काता। रहँटा न होय मुक्ति कर दाता ॥९८।। साँई के सँग सासुर आई। संग न सूती स्वाद न जानी जोबन गो सपने की नाई। जना चारि मिलि लगन सोचोई जना पाँच मिलि मंडप छाई । सखा सहेली मंगल गावै दुख सुख माथे हरदि चढ़ाई। नाना रूप परी मन भाँवरि गाँठी जोरि भई पति आई ।। अरघ देइ देइ चली सुवासिनि चौकहिं रॉड भई सँग साई । भयो वियाह चली विन दूलह वाट जान समधी समुझाई । कहै कवीर हम गौने जैबै तरब कंत ले तूर बजाई ॥९९।। विरह-निवेदन वालम आओ हमारे गेह रे । तुम विन दुखिया देह रे । । सब कोइ कहै तुमारी नारी मोको यह संदेह रे । एकमेक है सेज न. सोवै तव लग कैसे नेह रे ।।