पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( २१५ ) जगभव का गावना क्या गावै, अनुभव गावै सो रागी है। वन गेह की वासना नास करे, कधीर सोई वैरागी है ॥११३।। कर्मगति करमगति टारे नाहिं टरी। मुनि वसिष्ठ से पंडित ज्ञानी सोध के लगन धरी ।। सीता हरन मरन दसरथ को वन में विपति परी। कहँ वह फंद कहाँ वह पारधि कहँ वह मिरग चरी ।। सीया को हरि लैगो रावन सुवरन लंक जरी। नीच हाथ हरिचंद विकाने वलि पाताल धरी ।। कोटि गाय नित पुन्न करत नृप गिरिगिट जोन परी। पाँडव जिनके आपु सारथी तिनपर विपर्ति परी ।। दुरजोधन को गरव घटायो जदुकुल नास करी । राहु केतु श्री भानु चंद्रमा विधी सँजोग परी ।। कहत कबीर सुनो भाई साधे होनी हो के रहीं ॥१२ अपने करम न मेटो जाई । कर्म के लिखा मिटे धैां कैसे जो युग कोटि सिराई ।। गुरु वसिष्ठ मिलि लगन सोधाई सूर्य मंत्र एक दीन्हा । जो सीता रघुनाथ विशाही पल एक संच न कीन्हीं।। नारद मुनि को वदन छपायो कीन्हों कपि से रूपा। सिसुपालहुँ की भुजा उपारी आपुन वैध सरूपा । तीन लोक के करता कहिए वालि वध्यो चरिआई। एक समय ऐसी पनि आई उनहूँ अवसर पाई ।। पारवती को वाँझ न कहिए. ईस न कहिय भिखारी। कह कवीर करता की बातें करम की वातः निारी ॥२५॥