सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( २१७ ) ऐसी दुनिया भई दिवानी, भक्ति भाव नहिं वूझै जी। कोई श्रावे तो वेटा 'माँगे, यही गुसाईं दीजै जी॥ कोई आये दुख का मारा, हम पर किरपा कीजै जी। कोई श्रावे तो दौलत माँगै, भेंट रुपैया लीजै जी। कोई करात्रै व्याह सगाई, सुनत गुसाई राम जी । साँचे का कोइ गाहक नाहीं, झूठे जगत पतीज जी। कहै कवीर सुनो भाइ साधा, अंधों को क्या कीजै जी ॥११९॥ या जग अंधा, मैं केहि समझावों। इक दुइ होय उन्हें समाझावों, सव ही धुलाना पेट के धंधा ॥ पानी कै घोड़ा पवन असवरवा, ढरकि परै जस श्रोस कै बुंदा। गहिरी नदिया अगम वह घरवा, खेवनहारा पड़िगा फंदा ॥ घर की वस्तु निकट नहिं श्रावत, दियना वारिके हँढत अंधा) लागी श्राग सकल वन जरिगा, विन गुर ज्ञान भटकिगा वंदा । कहैं कवीर सुनाभाई साधो,इक दिनजाय लँगोटीमारवंदा॥१२०॥ चली है कुलवोरनी गंगा नहाय । सतुवा कराइन बहुरी भुंजाइन यूँघट ओटे भसकत जाय ॥ गठरी वाँधिन मोटरी वाँधिन, खसम के मूंड़े दिहिन धराय । विछुवा पहिरिन औंठा पहिरिन, लात खसम के मारिन जाय । गंगा न्हाइन जमुना न्हाइन, नौ मन मैल हैं लिहिन चढ़ाय ॥ पाँच पचीस कै धक्का खाइन, घरहुँ की पूँजी श्राई गँवाय । कहत कवीर हेत करुगुरु सौं नहिं तोर मुकती जाइ नसाय॥१२१॥ उद्बोधन पंडित वाद वदौ सो झूठा। राम के कहे जगत गति पावै खाँड़ कहे मुख मीठा ।