पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( २२४ ) जा कोइ गुरुः से नेह लगाई। वहुत भाँति सोई सुख पाई। माटी में काया मिलि जाई। कह कवीर आगे गोहराई ।। साँच नाम साहेव को सँग माँ ॥१४॥ ना जाने तेरा साहेव कैसा। महजिद भीतर मुल्ला पुकारै क्या साहेव तेरा बहिरा है। .. चिउँटी के पग नेवर वाजै सो भी साहव सुनता है। पंडित होय के आसन मारै लंवी माला जपता है। अंतर तेरे कपट कतरनी सो भी साहव लखता है ।। . . ऊँचा नीचा महल बनाया गहरी नेव जमाता है। चलने का मनसूवा नाहीं रहने को मन करता है। कौड़ी कौड़ी माया जोड़ी गाड़ि जमीं में धरता है। जेहि लहना है सो लै जैहै पापी वहि वहि मरता है ।। सतवंती को गजी मिले नहि वेश्या पहिरे खासा है। जेहि घर साधू भीख न पात्र भँडुवा खात वतासा है। हीरा पाय परख नहिं जाने कौड़ी परखन करता है। कहत कबीर सनो भाइ साधा हरि जैसे को तैसा है ।।१४३।। मुखड़ा क्या देखे दरपन में, तेरे दयो धरम नहिं तन में । आम की डार कोइलिया बोलै सवना बोले वन में ॥ घरवारी तो घर में राजी फकड़ राजी वन में। पेंटी धाती पाग लपेटी तेल चुया जुलफन में । गली गली की सखी रिझाई दाग लगाया तन में। पाथर की इक नाव बनाई उतरा चाहै छन में। कहत कबीर सुनो भाई साधो वे क्या चढ़िहें रन में ॥१४४ मोरे जियरा बड़ा अँदेसवा, मुसाफिर जैहो कौनी ओर । माह का सहर कहर नर नारी दुइ फाटक वन वोर ॥ कुमती नायक फाटक रोके, परिहा कठिन मँझोर । संसय नदा अगाड़ी यहती, विषम धार जल जोर ॥