सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( २२५ ) क्या मनुवाँ तू गाफिल सोवै, इहाँ मोर और तोर। निसि दिन प्रीति करो साहव से, नाहिन कठिन कठोर॥ काम दिवाना क्रोध है राजा, चसै पचीसो चोर। सत्त पुरुख इक बसै पच्छिम दिसि, तासों करो निहोर ।। आय दरद राह तोहि ला तव पैहो निज पोर ।। उलटि पाछिलो पैड़ा पकड़ो पसरा मना बटोर । कहें कीर सुनो भाई साधो तव पैहो निज ठोर ॥१५॥ पीले प्याला हो मतवाला प्याला नाम अमी-रस का रे। वालापन सब खेल गँवाया तरुन भया नारी बस का रे॥ विरध भया कफ वाय ने घेरा खाट पड़ा न जाय खसका रे। नाभि कँवल विच है कस्तूरी जैसे मिरग फिर बन का रे। विन सतगुरु इतना दुख पाया वैद मिला नहिं इस तन का रे। माता पिता बंधु सुत तिरिया संग नहीं कोइ जाय सकारे ॥ जव लग जी गुरु गुन गाले धन जोवन है दिन दस का रे।। चौरासी जो उवरा चाहै छोड़ कामिनी का चसका रे ॥ कहै कबीर नुनो भाई साधोनख सिख पूररहा विसका रे ११४६ नाम सुमिर, पछतायगा। पापी जियरा लोभ करत है आज काल उठि जायगा । लालच लागी जनम गँवाया काया भरम भुलायगा। धन जोवन का गरव न कीजै कागद ज्यों.गलि जायगा। जव जम आइ केस गहि पटकै ता दिन कछु न बसायगा। सुमिरन भजन दया नहिं कीन्ही तो मुख चोटा खायगा॥ धरम राय जव लेखा माँगे। क्या मुख लेके जायगा। कहत कवीर सुनो भाई साधो साध संग तरि जायगा ॥१४७॥ मेरा तेरा मतुाँ कैसे इक होइ रे। मैं कहता हौं आँखिन देखी, तू कागद की लेखी। मैं कहता सुरझावन हारी, तू राख्यो अरुझाई रे॥ १५