पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२४८

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( २२८ ) कहे कबीर नाम विनु वेरा । उठ गया हाकिम लुट गया डेरा ॥१५४॥ का नर सोवत मोह निसा में जोगत नाहिं कृच नियराना। पहिल नगारा सेत के समये दूजे वैन सुनत नहि काना ॥ तीजे नैन दृष्टि नहिं सूझै चौथे भान गिरा परवाना । मात पिता कहना नहिं मानै विप्रन सों कीन्हा अभिमाना ।। धरम की नाव चढ़न नह जानै अव जमराज ने भेद वखाना । होत पुकार नगर कसवे में रैयत लोग सबै अकुलाना ॥ पूरन ब्रह्म की होत तयारी अंत भवन विच प्रान लुकाना । प्रेम नगर में हाट लगतु है जहँ रँगरेजवा है सत वाना। कह कबीर कोइ कामन ऐहैमाटी के देहियामाटि मिल जाना१५५॥ रे दिल गाफिल गफलत मत कर एक दिन जम आवेगा। लौदा करने या जग श्राया, पूँजी लाया मूल गँवाया ।। प्रेम-नगर का अंत न पाया, ज्यों श्राया त्यों जावेगा। सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता, या जीवन में क्या क्या कीता ॥ सिर पाहन का बोझा लीता, श्रागे कौन छुड़ावैगा। परलिपार मेरा मीता खड़िया, उस मिलने का ध्यानन धरिया॥ टूटी नाव ऊपर जा बैठा, गाफिल गोता खावेगा। दास कबीर कहें समुभाई, अंतकाल तेरो कौन सहाई ॥ चला अकला संग न कोई, कीया अपना पावैगा ॥१५६॥ सुमिगे सिरजनहार, मनुख तन पाय के । काहे रहो अचेत कहा यह अवसर पैहो। फिर नहि मानुख जनम वारि पीछे पछतहो ।। लय चौरासी जीव जंतु में मानुस्ख परम अनृप । सा तन पाय न चतह कहा रंक का भूप॥ गरम वास में रहती को मैं भजिहां नाही। निलि दिन मुमिरा नाम कष्ट से काही माहीं ॥