खेल ले नैहरवाँ दिन चारि। पहिली पठौनी तीन जन आए नौवा वाम्हन वारि ॥ 'वावुल जी मैं पैयाँ तोरी लागों अव की गवन दे टारि। दुसरी पठानी आपै आप. लेके डोलिया कहार ॥ धरि पहियाँ डोलिया बैठारिन कोउ न लागै गोहार। ले डोलिया जाइ वन उतारिन कोइ नहिं संगी हमार ॥ कहैं कवीर सुनो भाइ साधो इक घर हैं दस द्वार ॥१७॥ इंडिया फंदाय धन चालु रे, मिलि लेहु सहेली। दिना चारि को संग है फिर अंत अकेली ॥ दिन दस नैहर खेलिए सासुर निज भरना। वहियाँ पकरि पिया ले चले तव उजुर न करना । इक अँधियारी कोठरी, दूजे दिया न वाती। दें उतारि तेही घराँ जहँ संग न साथी॥ इक अँधियारी कुइयाँ दूजे लेजुर टूटी। नैन हमारे अस दुर, मानों गागर फूटी ॥ दास कवीरा यों कहै, जग नाहिन रहना। संगी हमारे चलि गए हमहूँ को चलना ॥१७७॥ करो जतन सखी साँई मिलन की। गुड़िया गुड़वा सूप सुपेलिया, तज दे बुध लरिकैयाँ खेलन की। देवता पित्तर भुइयाँ भवानी, यह मारग चौरासी चलन की। ऊँचा महल अजव रंग रंगला साँई सेज वहाँ लागी फुलन की।। तन मन धनसव अरपन कर वहाँसुरतसम्हारुपरुपैयाँसजन की। कह कबीरनिरभय होय हंसाकुंजीवता देउँ ताला खुलन की॥१७८॥
पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२५५
दिखावट