(५०) भाग, प्रथम खंड, पृष्ठ संख्या ५३८, ५३९ में प्रकाशित हुना है। उस सारमर्म में 'भागवत धर्म के निम्नलिखित सिद्धांत बतलाए गए हैं- १-भगवान एक हैं, उन्हीं से विश्व चराचर उत्पन्न दुभा है। अपना विशेष आदेश पालन करने के लिये उन्होंने कतिपय देवताओं को बनाया। किंतु जब इच्छा होती है तो, प्रयोजन होने पर पृथ्वी का पाप मोचन करने के लिये वे स्वयं धरा में अवतीर्ण होते हैं। भगवान को पितृ-रूप में स्वीकार करने के लिये भारतवर्ष भागवतों का ऋणी है। २-इस धर्मवाले एक मात्र उस भगवान की ही भक्ति करते हैं। इस धर्म का यही एक विशेषत्व है। इस प्रकार सगुण ईश्वर की उपासना भागवतों से ही भारतवर्ष ने सीखी है। ३–प्रत्येक ग्रात्मा ही परमात्मा से प्रसूत है । जो प्रसून दुई है, वह अनंत काल तक स्वतंत्र रहेगी और उसका बार बार जन्म होगा। किसी कर्म या ज्ञान के द्वारा नहीं, कंवल भोक्त के द्वारा जन्मपरिग्रह सकता है। उस समय मुक्त श्रान्मा अनंत काल नक भगवान के चरणाश्रय में रहती है । इस प्रकार भारत को भागवतों ने ही श्रान्मा के अमरत्व की दीक्षा दी है। ४-भगवान के निकट सभी प्रान्माएँ समान है। मुक्ति- लाम के लिये केवल उय जाति या शिक्षित अंगी हो किोर में अधिकारी है, यह टीक नहीं। समाज के लिय जानिमेट मंगलकारका सकता है। परंतु भगवान की दृष्टि मी पर समान है। भगवान का पिता स्वीकार कर लेने में म्यगायनः मान्न मानयों को प्रनि मातृमाव अंगीरनामा | भाग्न ने मी भागानों में ही पाया।
पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/५६
दिखावट