पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/६९

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( ६३ ) चरन् रमैनी में कहते हैं कि माया द्वारा त्रिदेव और वेदादि की उत्पत्ति केवल संसार को भ्रांत बनाने के लिये हुई है, सत्य शब्द के लिये हमीं पाए हैं (देखो कवीर वीजक, पृ० १३ और १७ के दोहे १५ और २०)। किंतु यह उस मनुष्य के, जिसके हृदय में, मस्तिष्क में, धमनियों में, रक्त की पूँर्दा में, चैतन्य की कलाएँ प्रति पल दृष्टिगत हो रही हैं, इस कथन के समान है कि चैतन्य से हमारा कोई संपर्क नहीं, क्योंकि हम स्वयं सत्य हैं। कुरान के विषय में भी उनकी उत्तम धारणा नहीं और यही कारण है कि जो जी में आया, उन्होंने इन ग्रंथों के विषय में लिखा । किंतु शास्त्र कहता है- धर्मः यो वाधते धर्म न स धर्मः कुधर्म तत् । धम्माविरोधी यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रमः॥ जो धर्म किसी धर्म को वाधा पहुंचाता है, वह धर्म नहीं है, कुधर्म है। जो धर्म अपर धर्म का अविरोधी है, सत्य पराक्रमशील धर्म वही है । आज दिन संसार में शांति फैलाने के कामुक इसी पथ के पथी हैं। थियोसोफिकल सोसा- इटी का यही महामंत्र है, अतएव अनेक अंशों से उसको सफ- लता भी हो रही है। हिंदू धर्म स्वयं, इस महामंत्र का ऋपि, और चिरकाल से उसका उपासक है। यही कारण है कि इसके विभिन्न विचारों के नाना संप्रदाय हिदुत्व.के एक सूत्र में आज भी बँधे हैं। किसी किसी का विचार है कि कवीर साहवः अपठित थे, उन्होंने वेद-शास्त्र उपनिषदों को पढ़ा नहीं, कुरान के विषय में भी वे ऐसे ही अनभिज्ञ रहे इसलिये उन्होंने इन ग्रंथों के माननेवालों के प्राचार व्यवहार को जैसा देखा, वैसे ही उन के विषय में अनुमति प्रकट की। किंतु मैं इस विचार से सहमत नहीं । कवीर साहव चिंताशील पुरुष थे। वे यह भी