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पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/६८

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धर्मालोचनाएँ धर्मसंगत ही होनी चाहिएँ, उनमें हृदय- गत विकारों का विकास न होना चाहिए । वेदशास्त्र के शासन में आज भी बीस करोड़ मनुष्य हैं; कुरान संसार के एक पंचमांश मानव की धर्मपुस्तक है। विना उनमें कुछ सद्गुण या विशेषत्त्व हुए उनका इतने हृदयों पर अधिकार होना असंभव था। कबीर साहवं ने बड़े गर्व और आवेश से स्थान स्थान पर यह कहा है कि हमारे वचन से ही मानव का उद्धार हो सकता है। हमारे शब्द ही लोगों को मुक्त करेंगे। किंतु जो कुछ वेदशास्त्र या करान में है, उससे उन्होंने अधिक क्या कहा ? कौन सी नई वात वतलाई? वे केवल आध्यात्मिक शिक्षक हैं। किंतु क्या इस पथ में भी वे उतने ही ऊँचे उठे हैं, जितने कि उपनिषद् और दर्शनकार उठ सके ? जिस काल संसार में केवल अज्ञान अंधकार था, ज्ञानरवि की एक किरण भी नहीं फूटी थी, उस काल कहाँ से यह मेघ गंभीर ध्वनि हुई- ___ सत्यं वद, धम्म चर, स्वाध्यायान् मा प्रमदितव्यम्, मातृ- देवो भव, पितृदेवो भव, प्राचार्यदेवो भव, मा हिंस्यात् सर्व- भूतानि, ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः, पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् उतामृतन्वस्ये शानो यदन्ने नातिरोहति सर्वाशा मम मित्रम् भवंतु । यदि हमारा हृदय कलुषित नहीं है, यदि हम में सत्य- प्रियता है, यदि हम न्याय और विवेक को पददलित नहीं करना चाहते, तो हम सुक्तकंठ से कहेंगे-पवित्र वेदों से । आज इसी ध्वनि की प्रतिध्वनि संसार में हो रही है, आज इसी ध्वनि का मधुर स्वर सांसारिक समस्त धर्म-ग्रंथों में गूंज रहा है। स्वयं कवीर साहव के वचनों और शब्दों में उसी की लहर पर लहर पा रही है। किंतु वे ऐसा नहीं समझते,