(७ ) उपदेश के अधिकारी हो; क्योंकि ओरों से तुम लोगों को उनकी अधिक आवश्यकता है।" वे दोनों उनका यह भाव देखकर इतने मुग्ध और लजित हुए कि तत्काल शिष्य हो गए और काल पाकर उनके प्रधान शिष्यों में गिने गए। धर्मग्रंथों को बुरा कहना, आडंबरों की श्रोट में धर्म- साधन की सुंदर पद्धतियों की भी निंदा करना स्वाधीनचिता नहीं है। मानवों की मंगल-कामना से, उपकार की इच्छा से, उनमें परस्पर सहानुभूति और ऐक्य-संपादन एवं भ्रातृभाव-उत्पादन के लिये, उन्हें सत्पथ पर आरूढ़ और सद्भावों अथच सद्विचारों से अभिज्ञ करने के अर्थ धर्म अथवा मजहवों की सृष्टि है। 'तुम लोग परस्पर सहानुभूति और ऐक्य रखा, एक दूसरे को भाई समभा, सत्पथ पर चलो, सद्विचारों से काम लो' केवल इतना कहने से ही काम नहीं चलता । इन उद्देश्यों की पूर्चि के लिये कुछ पद्धतियाँ, नियम और पर्व-त्योहार भी, देशकाल और पात्र का विचार करके वनाने पड़ते हैं क्योंकि ये ही सहानुभूति और ऐक्य इत्यादि के साधन होते हैं। ये मनुष्य-बुद्धि से ही प्रसूत हैं, अतएव इनमें न्यूनता और अपूर्णता हो सकती है, परंतु इन साधारण दोषों के कारण ये सर्वथा त्याज्य नहीं कहे जा सकते। यदि धर्म की आवश्यकता है, तो इनकी भी श्राव- श्यकता है। स्वाधीन चिंता का यह काम है कि अावश्यकता- नुसार वह उनको काटती छाँटती रहे, ठीक करती रहे संकीर्ण स्थानों को विस्तृत बनाती रहे। उसका यह काम नहीं है कि उनको मटियामेट कर दे और उनके स्थान पर कोई उससे निन्न कोटि की पद्धति इत्यादि भी स्थापन न करके समाज को उच्छंखल कर दे। कोई कहते हैं कि किसी धर्म या मजहब की आवश्यकता ही क्या ? किंतु यह बात कहने के समय स्थानी वह उनको काचता का यह काता इनकी भी श्री
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