पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/७८

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, ( ७२ ) . अनन्तशास्त्रम् बहुवेदितव्यम् स्वल्पश्च कालो वहवश्च विघ्नाः । यत् सारभूतम् तदुपाश्रितव्यम् हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमिश्रम् ॥ _ स्वाधीन चिंता यही तो है ! एक धर्म होने के कारण ही वेद-शास्त्र के सिद्धांत अधिक उदार हैं । इसी से वह कहता है कि प्राणीमात्र मोक्ष का अधिकारी है। किसी समाज, देश या मजहब का मनुष्य क्यों न हो, जिसमें सदाचार है, धर्म- परायणता है, ईश्वर-विश्वास है, वह अवश्य मुक्त होगा। चह समझता है कि परमात्मा घट घट में व्याप्त है, अंतर्यामी है; यदि उसे कोई राम, हरि, इत्यादि शब्दों में उद्बोधन न करके गॉड या अल्लाह इत्यादि शब्दों से उद्बोधन करता है, तो क्या परमात्मा उसकी भक्ति को अगृहीत करेगा ? उनको चाहे जिस नाम से पुकारें, यदि सच्चे प्रेम से भक्ति-गद्गद-चित्त से पुकारेंगे, तो वह अवश्य अपनावेगा । यदि कोई सत्य बोलता है, परोपकार करता है, सदाचारी है, परदुःखकातर है, लोक- सेवा-परायण है, धर्मात्मा है, तो परमात्मा उसे अवश्य अंक में ग्रहण करेगा। उससे यह न पूछेगा कि तू हिंदू है या मुसल- मान, या क्रिश्चियन या चौद्ध या अन्य । यदि वह ऐसा कर, तो वह जगत्पिता नहीं, जगन्नियंता नहीं, विश्वात्मा नहीं, सर्वव्यापक नहीं, न्यायी नहीं। जिसका सिद्धांत इसके प्रतिकूल है, उसका वह सिद्धांत किसी मुख्य उद्देश्य का साधक हो सकता है। परंतु वह उदार नहीं है, व्यापक नहीं है, अनुदार, अपूर्ण और अन्यापक है। हिंदू धर्म उसपर अाक्रमण नहीं करता। वह जानता है कि भगवान् भुवनभास्कर के अभाव में दीपक भी आदरणीय है। संसार को मुग्ध करता हुत्रा वह जगत्पिता की ओर प्रवृत्त होकर उच्च कंठ से यही कहता है- "रुचीनां वैचित्र्यात् कुटिलऋजुनानापथयुपां। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णवमिव ॥" वहता है, सदाता परमात्मा हद है या कर,