उद्रेक होता कि राह चलते समाधि लग जाती। क्यों ऐसा होता? इसलिये कि उनको उस ध्वनि, निनाद और वाँग में ईश्वर-प्रेम की एक अपूर्व धारा मिलती। कवीर साहव कहते हैं- हिंदु एकादसि चौविस रोजा मुसलिम तीस बनाए । ग्यारह मास कहो किन टारी ये केहि माहि समाए । पूरव दिशि में हरि को वासा पश्चिम अलह मुकामा । दिल में खोज दिले में देखा यह करीमा रामा ॥ जो खोदाय मसजिद में वसत है और मुलुक केहि केरा। -क० बी०, पृ० ३८८ हिंदुओं की चौवीस एकादशी और मुसलमानों के तीस रोजा का यह अर्थ नहीं है कि ऐसा करके वे शेष ग्यारह महीनों को व्यर्थ सिद्ध करते हैं। यदि कोई वरावर तीन सौ साठ दिन अपना धर्म-कृत्य नहीं कर सकता, या यदि कुछ ऐसे धर्म-कृत्य हैं जो लगातार तीन सौ साठ दिन नहीं हो सकते, अतएव उनके लिये यदि कुछ विशेष दिन नियत किए जाय, तो क्या यह युक्ति-संगत नहीं? यदि हिंदू पूर्व मुख और मुसलमान पश्चिम मुख बैठकर उपासना करता है, तो इसका यह अभिप्राय नहीं है कि वह परमात्मा का ध्यान हृदय में नहीं करना चाहता। वह पूर्व या पश्चिम मुख बैठ- कर यही तो करता है ! उपासना-काल में उसे किसी मुख बैठनाही पड़ेगा। फिर यदि उसने कोई मुख्य दिशा उपासना को सुलभ करने के लिये नियत कर ली, तो इसमें क्षति क्या ? मसजिद, मंदिर या गिरिजा बनाने का यह अर्थ नहीं है कि ऐसा करके सर्व-स्थल-निवासी परमात्मा की व्यापकता अस्वी- कार की जाती है, उपासना की सुकरता ही उनके निर्माण का हेतु है । जो सर्वव्यापक भाव से उपासना नहीं कर सकता,
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