ने अँगरेजी में "प्राफेट्स आफ इंडिया नाम का एक सुंदर ग्रंथ लिखा है। उसका उर्दू अनुवाद वावू नारायणप्रसाद वर्मा ने "रहनुमायाने हिंद” के नाम से किया है। ग्रंथ के पृष्ट २२३ के निम्नलिखित वाक्य में भी हम ऊपर के अवतरण की ही प्रतिध्वनि सुनते हैं-"उनकी सवानेह उमरी एक मुखफी इसरार है। हम उनके दाराने जिंदगी के हालात से बिल्कुल वाकिफ नहीं हैं।" परंतु मेरी इन सजनों के साथ एकवाक्यता नहीं है। क्योंकि प्रथम तो आगे चलकर श्रीयुत वेस्कट महोदय स्वयं निन्नांकित वाक्य लिखते हैं, जिसका दूसरा टुकड़ा उनके प्रथम विचार का कियदंश में वाधक है-"आजतक जितनी कहानियाँ कही गई है, उनसे ज्ञात होता है कि कवीर काशी के रहनेवाले थे। यह बात स्वाभाविक है कि उनके हिंदू शिष्य जहाँ तक हो सके, उनका अपने पवित्र नगर से संबंध दिखलाने की इच्छा करें। परंतु दोनों चीजक और आदि ग्रंथ से यह वात स्पष्ट है कि उन्होंने कम से कम अपना सारा जीवन काशी ही में नहीं व्यतीत किया ।" क. ए. क. पृष्ठ १८, १९ । दूसरे, जिस बात को कवीर साहव स्वयं स्वीकार करते हैं, उसमें तर्क-वितर्क की आवश्यकता क्या ? उनके निम्नलिखित पद उनका काशी-निवासी होना स्पष्ट सिद्ध करते हैं- 'तू वाम्हन मैं काशी का जुलाहा वूझहु मार गियाना'। आदि ग्रंथ, पृ० २६२ सकल जनम, शिवपुरी गवाया। मरति वार मगहर उठिधाया। । आदि ग्रंथ, पृ० १७७ 'काशी में हम प्रगट भये हैं रामानंद चेताये। कवीर शब्दावली, द्वितीय भाग पृ० ६१
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