यनाता है, और कहता है-देखो यह एक बड़ी रेखा है, और यह एक विंदु है परंतु वास्तव में रेखा और विंदु की परि- भाषा के अनुसार न तो वह रेखा है और न वह विंदु । किंतु उसी कल्पित रेखा और विंदु के आधार से शिष्य अंत में रेखागणित शास्त्र में पारंगत होता है। इसी प्रकार कल्पित धर्मसाधनों से परमात्मा की प्राप्ति होती है। जैसे उस सदोष रेखा और विंदु का त्याग करने से कोई रेखागणित नहीं सीख सकता, उसी प्रकार धर्म के कल्पित साधनों का त्याग करने से, चाहे वह किसी अंश में सदोप ही क्यों न हो, कोई परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता और यही तत्त्वज्ञता है। ___ धर्मग्रंथों और धर्म-साधनों के बंधन से स्वतंत्रता- प्रदान-मूलक विचार प्यारा लगता है, क्योंकि मनुष्य स्वभाव से स्वतंत्रताप्रिय है। वह बंधन को अच्छी आँख से नहीं देखता । जहाँ तक उसको बंधन छिन्न करने का अवसर हाथ श्रावे, उतना ही वह आनंदित होता है। किंतु वंधन ही समाज और स्वयं उसकी आत्मा और शरीर के लिये हितकर है। वह आहार-विहार में ही उच्छखलता ग्रहण करके देखे, क्या परिणाम होता है। जैसे राजनियमों का बंधन छिन्न होने पर देश में विप्लव हो जाता है, उसी प्रकार धर्मनियमों का बंधन टूटने पर आध्यात्मिक जगत् में विप्लव उपस्थित होता है। अतएव धर्मग्रंथों और धर्म-साधनों को बंधन कहकर उनसे सर्वसाधारण को मुक्त करने की उत्कंठा से उसके तत्त्वों की ओर उनका दृष्टि-पाकर्पण विशेष उप- कारी है। ___ मेरा विचार है कि कवीर साहव अंत में वेदांत धर्मा- वलंबी हो गए थे। इस ग्रंथ के वेदांतवाद शीर्षक शब्दों को
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