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पृष्ठ:कर्बला.djvu/१०५

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कर्बला

मुख०―हाँ, वरना हमें मशविरा देने के लिए क्यों बुलाता।

हानी०―मुझे तो खौफ़ है कि उसे मुस्लिम की बैयत लेने की खबर मिल गयी है। कहीं उसकी नीयत खराब न हो।

मुख०―शक और एतबार साथ-साथ नहीं होता। वरना वह आज आपके घर न जाता।

हानी०―उस वक्त भी शायद भेद लेने ही के इरादे से गया हो। मुझसे ग़लती हुई कि अपने क़बीले के कुछ आदमियों को साथ न लाया, तलवार भी नहीं ली।

सुले०―यह आपका बहम है।

[ज़ियाद के मकान में वे सब दाखिल होते हैं। वहाँ कीस, शिमर, हज्जाज आदि बैठे हुए हैं।]

ज़ियाद―अस्सलामअलेक। आइए, आप लोगों से एक खास मुआमले में सलाह लेनी है। क्यों शेख हानी, आपके साथ खलीफ़ा यज़ीद ने जो रियायतें कीं, क्या उनका यह बदला होना चाहिए था कि आप मुस्लिम को अपने घर में ठहराये, और लोगों को हुसैन की बैयत करने पर आमादा करें? हम आपका रुतबा और इज़्ज़त बढ़ाते हैं,और आप हमारी जड़ खोदने की फ़िक्र में हैं?

हानी―या अमीर, खुदा जानता है, मैंने मुस्लिम को खुद नहीं बुलाया, वह रात को मेरे घर आये, और मेरी पनाह चाही। यह इन्सानियत के खिलाफ़ था कि मैं उन्हें घर से निकाल देता। आप खुद सोच सकते हैं कि इसमें मेरी क्या खता थी।

ज़ियाद―तुम्हें मालूम था कि हुसैन खलीफ़ा यज़ीद के दुश्मन हैं।

हानी―अगर मेरा दुश्मन भी मेरी पनाह में आता, तो मैं दरवाज़ा न बन्द करता।

ज़ियाद―अगर तुम अपनी खैरियत चाहते हो, तो मुस्लिम को मेरे हवाले कर दो। वरना कलाम पाक की क़सम, तुम फिर आफ़ताब की रोशनी न देखोगे।

हानी―या अमीर, अगर आप मेरे जिस्म के टुकड़े-टुकड़े कर डालें,