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पृष्ठ:कर्बला.djvu/११४

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कर्बला

एक सिपाही---तलवार क्या है, बिजली है। ख़ुदा बचाये।

[ मुस्लिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर पड़ता है। ]

दूसरा सिपाही---अब इधर चला, जैसे कोई मस्त शेर डकारता हुआ चला आता हो। बन्दा तो घर की राह लेता है, कौन जान दे।

[ भागता है। ]

तीसरा सिपाही---अर...र...र...या हज़रत मैं ग़रीब मुसाफ़िर हूँ, देखने आया था कि यहाँ क्या हो रहा है।

[ मुस्लिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर पड़ता है ]

चौथा सिपाही---जहन्नुम मे जाय ऐसी नौकरी। आदमी आदमी से लड़ता है कि देव से। या हज़रत, मैं सिपाही नहीं हूँ, मैं तो हुज़ूर के हाथों पर बैयत करने आया था।

[ मुस्लिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर पड़ता है। ]

पाँचवाँ सिपाही---किधर से भागें,कहीं जगह नहीं मिलती। या हज़रत, अपनी बूढ़ी मा का अकेला लड़का हूँ। जान बख़्श दें, तो हुजूर की जूतियाँ सीधी करूँगा।

[ तलवार पड़ते ही गिर पड़ता है। सिपाहियों में भगदड़ पड़ जाती है। ]

क़ीस---जवानो, हिम्मत न हारो। तुम तीन सौ हो। कितनी शर्म की बात है कि एक आदमी से इतना डर रहे हो।

एक सिपाही---बड़े बहादुर हो, तो तुम्हीं क्यों नहीं उससे लड़ आते? दुम दबाये पीछे क्यों खड़े हो? क्या तुम्हीं को अपनी जान प्यारी है?

क़ीस---हज़रत मुस्लिम, अमीर ज़ियाद का हुक्म है कि अगर आप हथियार रख दें, तो आपको पनाह दी जाय। ( सिपाहियों से ) तुम सब छतों पर चढ़ जाओ, और ऊपर से पत्थर फेको।

मु०---ऐ खुदा और रसूल के दुश्मन, मुझे तेरी पनाह की ज़रूरत नहीं है। मैं यहाँ तुझसे पनाह माँगने नहीं आया हूँ, तुझे सच्चाई के रास्ते पर लाने