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पृष्ठ:कर्बला.djvu/१२०

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तीसरा अंक
पहला दृश्य

[ दोपहर का समय। रेगिस्तान में हुसैन के क़ाफ़िले का पड़ाव। बगूले उड़ रहे हैं। हुसैन असगर को गोद में लिये अपने ख़ेमे के द्वार पर खड़े हैं। ]

हुसैन---( मन में ) उफ़ , यह गर्मी। निगाहें जलती हैं। पत्थर की चट्टानों से चिनगारियाँ निकल रही हैं। झीलें, कुएँ, सब सूखे पड़े हुए हैं, गोया इन्हें गर्मी ने जला दिया हो। हवा से बदन झुलसा जाता है। बच्चों के चेहरे कैसे सँवला गये हैं। यह सफ़ेदी, यह रेगिस्तान, इसकी कहीं हद भी है या नहीं! जिन लोगों ने प्यास के मारे होक-होककर पानी पी लिया है, उनके कलेजे में दर्द हो रहा है। अब तक कूफ़ा से कोई क़ासिद नहीं आया। खुदा जाने, मुस्लिम का क्या हाल हुआ। करीने से ऐसा मालूम होता है कि इराकवालों ने उनसे दग़ा की, और उनको शहीद कर दिया, वरना यह ख़ामोशी क्यों? अगर वह जन्नत को सिधारे हैं, तो तेरे लिए भी दूसरा रास्ता नहीं है। शहादत मेरा इन्तज़ार कर रही है। कोई मुझसे मिलने आ रहा है।

[ फ़र्जूक़ का प्रवेश। ]

फ॰---अस्सलामअलेक। या हज़रत हुसैन, मैंने बहुत चाहा कि मक्के ही में आपकी ज़ियारत करूँ, लेकिन अफ़सोस, मेरी कोशिश बेकार हुई।

हुसैन---अगर इराक से आये हो, तो वहाँ की क्या ख़बर है?

फ॰---या हज़रत! वहाँ की ख़बरें वे ही हैं, जो आपको मालूम हैं। लोगों के दिल आपके साथ हैं, क्योंकि आप हक़ पर हैं। और उनकी तलवारें यज़ीद के साथ हैं, क्योंकि उसके पास दौलत है।

हुसैन---और मेरे भाई मुस्लिम की भी कुछ खबर लाये हो?

क॰---उनकी रूह जन्नत में है, और सिर क़िले की दीवार पर।