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कर्बला

तख़्त नसीब हो या तख़्ता, हमारे लिए कोई दूसरा मुक़ाम नहीं है। अब्बास, जाकर मेरे साथियों से कह दो, मैं उन्हें ख़ुशी से इजाज़त देता हूँ, जहाँ जिसका जी चाहे, चला जाय। मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। चलो, हम लोग ख़ेमे उखाड़ें।


दूसरा दृश्य

[ सन्ध्या का समय। हुसैन का क़ाफ़िला रेगिस्तान में चला जा रहा है। ]

अब्बास---अल्लाहोअकबर! वह कूफ़ा के दरख़्त नज़र आने लगे।

हबीब---अभी कूफ़ा दूर है। कोई दूसरा गाँव होगा।

अब्बास---रसूल पाक की क़सम, फ़ौज है। भालों की नोंकें साफ़ नज़र आ रही हैं।

हुसैन---हाँ, फ़ौज ही है। दुश्मनों ने कूफ़े से हमारी दावत का यह सामान भेजा है। यहीं, उस टीले के क़रीब, खेमे लगा दो। अजब नहीं कि इसी मैदान में क़िस्मतों का फ़ैसला हो।

[ क़ाफ़िला रुक जाता है। खेमे गड़ने लगते हैं। बेगमें ऊँटों से उतरती हैं। दुश्मन की फ़ौज क़रीब आ जाती है। ]

अब्बास---ख़बरदार, कोई एक क़दम आगे न रखे। यहाँ हज़रत हुसैन के खेमे हैं।

अली अक॰---अभी जाकर इन बेअदबों की तंबीह करता हूँ।

हुसैन---अब्बास, पूछो, ये लोग कौन हैं, और क्या चाहते हैं?

अब्बास---( फौज से ) तुम्हारा सरदार कौन है?

हुर---( सामने आकर ) मेरा नाम हुर है। हज़रत हुसैन का गुलाम हूँ।

अब्बास---दोस्त दुश्मन बनकर आये, तो वह भी दुश्मन है।

हुर---या हज़रत, हाकिम के हुक्म से मजबूर हूँ, बैयत से मजबूर हूँ, नमक की क़ैद से मजबूर हूँ, लेकिन दिल हुसैन ही का ग़ुलाम है।

हुसैन--–( अब्बास से ) भाई, आने दो, इसकी बातों में सचाई की बू अाती है।