सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कर्बला.djvu/१३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३४
कर्बला

अली अकबर---दरिया के किनारे ख़ेमे लगाये जायँ, वहां ठंडी हवा आयेगी।

अब्बास---बड़ी फ़िज़ा की जगह है।

हुसैन---( आँखों में आँसू भरे हुए ) भाई, लहराते हुए दरिया को देख-कर ख़ुद-ब-ख़ुद दिल भरा आता है। मुझे ख़ूब याद है कि इसी जगह एक बार वालिद मरहूम की फ़ौज उतरी थी। बाबा बहुत ग़मगीन थे। उनकी आँखों से आँसू न थमते थे। न खाना खाते थे, न सोते थे। मैंने पूछा---या हज़रत, आप क्यों इस क़दर बेताब हैं? मुझे छाती से लपटाकर बोले---बेटा, तू मेरे बाद एक दिन यहाँ आयेगा, उस दिन तुझे मेरे रोने का सबब मालूम होगा। अाज मुझे उनकी वह बात याद आती है। उनका रोना बेसबब नहीं था। इसी जगह हमारे ख़ून बहाये जायँगे, इसी जगह हमारी बहनें और बेटियाँ क़ैद की जायँगी, इसी जगह हमारे आदमी क़त्ल होंगे और हम ज़िल्लत उठायेंगे। ख़ुदा की क़सम, इसी जगह मेरी गरदन की रगें कटेंगी, और मेरी दाढ़ी खून में रंगी जायँ। इसी जगह का वादा मेरे नाना से अल्लाह- ताला ने किया है, और उसका वादा तक़दीर की तहरीर है।

[गाते हैं।]
देगा जगह कोई मेरे मुश्ते-ग़ुबार को,
बैठेगा कौन लेके किसी बेकरार को।
दर सैकड़ों कफ़स में हैं, फिर भी असीर हूँ,
कैसा मकाँ मिला है ग़रीबे-दयार को।
दिल-सोज़ कौन है , जो ज़माने के जुल्म से
देखे मेरी बुझी हुई शमए-मज़ार को।
आख़िर है दास्तान शबे-ग़म कि याद मर्ग
करता है वद दीदए-अख़्तर शुमार को।
आवाज़ए-चमन की उमीद और मेरे बाद---
चुप कर दिया फ़लक ने ज़बाने-बहार को।
राहत कहाँ नसीब कि सहराए-ग़म की धूप---