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पृष्ठ:कर्बला.djvu/१३५

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कर्बला

देती है आग हर शजरे सायादार को।
खुद आसमाँ को नक़्शे-वफ़ा से है दुश्मनी
तुम क्यों मिटा रहे हो निशाने-मज़ार को।
इस हादिसे से क़ब्ल कि मैं फिर कुछ न कह सकूँ,
सुन लो बयान हालेदिले-बेकरार को।
[ जेनब खेमे से बाहर निकल आती है। ]

जैनब--–भैया, यह कौन-सा सहरा है कि इसे देखकर खौफ़ से कलेजा मुँह को आ रहा है। बानू बहुत घबराई हुई हैं, और असग़र छाती से मुँह नहीं लगाता।

हुसैन--–बहन! यही कर्बला का मैदान है।

जैनब---( दोनो हाथों से सिर पीटकर ) भैया, मेरी आँखों के तारे, तुम पर मेरी जान निसार हो। हमें तक़दीर ने यहाँ कहाँ लाके छोड़ा, क्यों कहीं और नहीं चलते?

हुसैन---बहन, कहाँ जाऊँ? चारों तरफ़ से नाके बंद हैं। ज़ियाद का हुक्म है कि मेरा लश्कर यहीं उतरे। मजबूर हूँ, लड़ाई में बहस नहीं करना चाहता।

जैनब---हाय भैया! यह बड़ी मनहूस जगह है। मुझे लड़कपन से यहाँ की ख़बर है। हाय भैया, इस जगह तुम मुझसे बिछुड़ जाओगे। मैं बैठी देखूँगी, और तुम बर्छियाँ खाअोगे। मुझे मदीने भी न पहुँचा सकोगे? रसूल की औलाद यहीं तबाह होगी, उनकी नामूस यहीं लुटेगी। हाय तकदीर!

इस दश्त में तुम मुझसे बिछुड़ जाओगे भाई,
गर खाक भी छानूँ, तो न हाथ आवेगा भाई।
बहनों को मदीने में न पहुँचाओगे भाई,
मैं देखूँगी, और बरछियाँ तुम खाओगे भाई।
औलाद से बानू की यह छूटने की जगह है,
नामूसे-नबी की यही लुटने की जगह है।
[ बेहोश हो जाती है। लोग पानी के छींटे देते हैं। ]

अली० अक०---या हज़रत, खेमे कहाँ लगाये जायँ?