ज़ालिम ने किस बुरी तरह क़त्ल कराया। यह सब देखकर, अगर यज़ीद की बैयत क़बूल कर लूँ, तो शायद मेरा ज़मीर मुझे कभी मुआफ न करेगा। हमेशा पहलू में खलिश होती रहेगी। आह! इस खलिश को भी सह सकती हूँ, पर वहब की रूहानी कोफ्त अब नहीं सही जाती। मैंने उन पर बहुत जुल्म किये। अब उनकी मुहब्बत की जंजीर को और न खींचूँगी। जिस दिन से अब्बा और अम्मा निकाले गये हैं, मैंने वहब को कभी दिल से ख़ुश नहीं देखा। उनकी वह ज़िन्दादिली ग़ायब हो गयी। यों वह अब भी मेरे साथ हँसते हैं, गाते हैं, पर मैं जानता हूँ यह मेरी दिलजोई है। मैं उन्हें जब अकेले बैठे देखती हूँ, तो वह उदास और बेचैन नज़र आते हैं....वह आ गये, चलूँ, दरवाज़ा खोल दूँ।
[ जाकर दरवाज़ा खोल देती है। वहब अन्दर दाखिल होता है। ]
नसीमा---तुम आ गये, वरना मैं ख़ुद अाती। तबियत बहुत घबरा रही थी। गुलाम कहाँ रह गया?
वहब---क़त्ल कर दिया गया। नसीमा, मैंने किसी को इतनी दिलेरी से जान देते नहीं देखा। इतनी लापरवाही से कोई कुत्ते के सामने लुक़मा भी न फेंकता होगा। मैं तो समझता हूँ, वह कोई औलिया था।
नसीमा---हाय, मेरे वफ़ादार और ग़रीब सालिम! खुदा तुझे जन्नत नसीब करे। जालिमों ने उसे क्यों क़त्ल किया?
वहब---अाह! मेरे ही कारण उस ग़रीब की जान गयी। जामा मस्जिद में हज़ारों आदमी जमा थे। खबर है, और तहक़ीक़ खबर है कि हज़रत हुसैन मक्के से बैयत लेने आ रहे हैं। जालिमों के होश उड़े हुए हैं। जो पहले बच रहे थे, उनसे अब यज़ीद की खिलाफ़त का हलफ़ लिया जा रहा है। ज़ियाद ने जब मुझसे हलफ़ लेने को कहा, तो मैं राज़ी हो गया। इनकार करता, तो उसी वक्त क़ैदखाने मे डाल दिया जाता। ज़ियाद ने खुश होकर मेरी तारीफ़ की, और यज़ीद के हामियों की सफ़ में ऊँचे दरजे पर बिठाया, जागीर में इज़ाफ़ा किया, और कोई मनसब भी देना चाहते हैं। उसकी मंशा यह भी है कि सब हामियों को एक सफ़ में बिठाकर एकबारगी सबसे हलफ़ ले लिया जाय। इसी लिए मुझे देर हो रही थी। इसी असना में सालिम