सन्तोष था, पर योद्धाओं का-सा धैर्य न था, जो कठिन-से-कठिन समय पर भी कष्ट-निवारण का उपाय निकाल लेते हैं। उनमें महात्मा गांधी का-सा आत्मसमर्पण था, किन्तु शिवाजी की दूरदर्शिता न था।
इधर हुसैन और उनके आत्मीय तथा सहायकगण तो अपने- अपने खामे गाड़ रहे थे, और उधर ओबैदुल्लाह-कूफा का गवनेर- लड़ाई की तैयारी कर रहा था। उसने 'उमर-बिन-साद' नाम के एक योद्धा को बुलाकर हुसैन की हत्या करने के लिए नियुक्त किया, और इसके बदले में 'रे' सूबे के आमिल का उच्च पद देने को कहा। उमरबिन-साद विवेकहीन प्राणी न था। वह भली-भाँति जानता था कि हुसैन को हत्या करने से मेरे मुख पर ऐसी कालिमा लग जायगी, जोकभी न छूटेगी, किन्तु रे-सूबे का उच्च पद उसे असमंजस में डाले हुए था। उसके सम्बनधियों ने सम- झाया-"तुम हुसैन की हत्या करने का बीड़ा न उठाओ, इसका परिणाम अच्छा न होगा।” उमर ने जाकर ओबैदुल्लाह से कहा- “मेरे सिर पर हुसैन के वध का भार न रखिए।" परन्तु 'रे' की गवर्नरी छोड़ने को वह तैयार न हो सका । अतएव जब ओबै- दुल्लाह ने साफ़-साफ़ कह दिया कि 'रे' का उच्च पद हुसैन की हत्या किये बिना नहीं मिल सकता । यदि तुम्हें यह सौदा महँगा अँचता हो, तो कोई जबरदस्ती नहीं है। किसी और को यह पद दिया जायगा ।" तो उमर का आसन डोल गया। वह इस निषिद्ध कार्य के लिए तैयार हो गया। उसने अपनी आत्मा को ऐश्वर्य- लालसा के हाथ बेच दिया। ओबैदुल्लाह ने प्रसन्न होकर उसे बहुत कुछ इनाम-इकराम दिया, और चार हजार सैनिक उसके साथ नियुक्त कर दिये। उमर-बिन-साद की आत्मा अब भी उसे क्षुब्ध करती रही। वह सारी रात पड़ा अपनी अवस्था या दुरवस्था पर विचार करता रहा । वह जिस विचार से देखता, उसी से अपना यह कम घृणित जान पड़ता था। प्रातःकाल वह फिर कूफा के गवर्नर के पास गया। उसने फिर अपनी लाचारी दिखाई। परन्तु 'रे' की