सूबेदारी ने उस पर फिर विजय पायी। जब वह चलने लगा, तो ओबैदुल्लाह ने उसे कड़ी ताक़ीद कर दी कि हुसैन और उनके साथी करात नदी के समीप किसी तरह न आने पायें, और एक घुट पानी भी न पी सकें। हुर के १००० सैनिक भी उमर के साथ आ मिले । इस प्रकार उमर के साथ पाँच हजार सैनिक हो गये । उमर अब भी यही चाहता था कि हुसैन के साथ लड़ना न पड़े। उसने एक दूत उनके पास भेजकर पूछा-"आप अब क्या निश्चय करते हैं ?" हुसैन ने कहा-"कूफ़ावालों ने मुझसे दगा की है। उन्होंने अपने कष्ट की कथा कहकर मुझे यहाँ बुलाया, और अब वह मेरे शत्रु हो गये हैं । ऐसी दशा में मैं मक्के लौट जाना चाहता हूँ, यदि मुझे जबरदस्ती रोका न जाय ।” उमर मन में प्रसन्न हुआ कि शायद अब कलंक से बच जाऊँ। उसने यह समाचार तुरन्त ओबैदुल्लाह को लिख भेजा। किन्तु वहाँ तो हुसैन की हत्या करने का निश्चय हो चुका था। उसने उमर को उत्तर दिया-"हुसैन से बैयत लो, और यदि वह इस पर राजी न हों, तो मेरे पास लाओ।" ।
शत्रओं को, इतनी सेना जमा कर लेने पर भी, सहसा हुसैन पर आक्रमण करते डर लगता था कि कहीं जनता में उपद्रव न मच जाय । इसलिए इधर तो उमर-बिन-साद कर्बला को चला, और उधर आबैदुल्लाह ने कूफा की जामा मस्जिद में लोगों को जमा किया । उसने एक व्याख्यान देकर उन्हें समझाया-"यजीद के खान-दान ने तुम लोगों पर कितना न्याय-युक्त शासन किया है, और वे तुम्हारे साथ कितनी उदारता से पेश आये हैं ! यजीद ने अपने सुशासन से देश को कितना समृद्धि-पूर्ण बना दिया है ! रास्ते में अब चोरों और लुटेरों का कोई खटका नहीं है। न्यायालयों में सञ्चा, निष्पक्ष न्याय होता है। उसने कर्मचारियों के वेतन बढ़ा दिये हैं। राजभक्तों की जागीरें बढ़ा दी गयी हैं। विद्रोहियों के कोट तहस-नहस कर दिये हैं, जिसमें वे तुम्हारी शान्ति में बाधक न हो सकें। तुम्हारे जीवन-निर्वाह के लिए उसने चिरस्थायी सुविधाएँ दे रखी