साद---खुदा ऐसे बड़े गुनाह को माफ़ न करेगा।
शिमर---अगर खुदा को ज़ात से यह एतक़ाद उठ जाय, तो मैं आज मुसलमान न रहूँ। यह रोज़ा और नमाज़, या ज़कात और खैरात, किस मर्ज़ की दवा है, अगर हमारे गुनाहों को भी माफ़ न करा सके।
साद---रसूल ख़ुदा को क्या मुँह दिखाऊँगा?
शिमर---साद, तुम समझते हो, हम अपनी मरज़ी के मुख्तार हैं, यक़ीदा बातिल है। सब-के-सब हुक्म के बन्दे हैं। उसकी मरज़ी के बग़ैर हम अपनी उँगली को भी नहीं हिला सकते। सबाब और अज़ाब का यहाँ सवाल ही नहीं रहता। अक़्लमंद आदमी उधार के लिए नक़द को नहीं छोड़ता। ताखीर मत करो, वरना फिर हाथ मलागे।
[ शिमर चला जाता है। ]
साद---( दिल में ) शिमर ने बहुत माक़ूल बातें कहीं। बेशक ख़ुदा अपने बन्दों के गुनाहों को माफ़ करेगा, वरना हिसाब के दिन दोज़ख मे गुनहगारों के खड़े होने की जगह भी न मिलेगी। मैं ज़ाहिद न सही, लेकिन मुझे तो खुदा के सामने नदामत से गर्दन झुकाने की कोई वजह नहीं है। बेशक खुदा की यही मरज़ी है कि हुसैन के मुकाबले पर मैं जाऊँ, वरना ज़ियाद यह तजवीज़ ही क्यों करता। जब खुदा की यही मरजी है, तो मुझे सिर झुकाने के सिवा और क्या चारा है। अब जो होना हो, सो हो---आग में कूद पड़ा, जलूँ या बचूँ।
[ ग़ुलाम को बुलाकर ज़ियाद के नाम अपनी मंजूरी का ख़त लिखता है। ]
ग़ुलाम---शायद हुजूर ने 'रै' की निज़ामत कबूल कर ली?
साद---जा, तुझे इन बातों से क्या मतलब।
ग़ुलाम---मैं पहले ही से जानता था कि आप यही फ़ैसला करेंगे।
साद---तुझे क्योंकर इसका इल्म था?
ग़ुलाम---मै ख़ुद इस मंसब को न छोड़ता, चाहे इसके लिए कितना ही ज़ुल्म करना पड़ता।
साद---( दिल में ) ज़ालिम कैसी पते की बात कहता है।
[ ग़ुलाम चला जाता है, और साद गाने लगता है। ]