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पृष्ठ:कर्बला.djvu/१७०

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कर्बला

हजरत हुसैन के क़दमों पर निसार होने जाता हूँ। आओ, गले मिल ले। शायद फिर मुलाकात न हो।

नसीमा---हाय वहब! क्या मुझे छोड़ जाओगे? मैं भी चलूँगी।

वहब---नहीं नसीमा, उस लू के झोंकों में यह फूल मुरझा जायगा। ( नसीमा को गले लगाकर ) फिर दिल कमज़ोर हुअा जाता है। सारी राह कम्बख़्त को समझाता आया था। नसीमा, तुम मुझे दुत्कार दो, हाँ, दुत्कार दो। खुदा, तूने मुहब्बत को नाहक़ पैदा किया।

नसीमा---( रोकर ) वहब, यह फूल किस काम आयेगा? कौन इसको सूँघेगा, कौन इसे दिल से लगायेगा! मैं भी हज़रत जैनब के क़दमों पर निसार हूँगी।

वहब---वह प्यास की शिद्दत, वह गरमी की तकलीफ़, वह हंगामे, कैसे ले जाऊँ?

नसीमा---जिन तकलीफ़ों को सैदानियाँ झेल सकती हैं, झेल सकूँगी? हीले मत करो वहब, मैं तुम्हें तनहा न जाने दूँगी।

वहब---नसीमा, तुम्हें निगाहों से देखते हुए मेरे क़दम मैदान की तरफ़ न उठेंगे।

नसीमा---( वहब के कन्धे पर सिर रखकर ) प्यारे! क्यों किसी ऐसी जगह नहीं चलते, जहाँ एक गोशे में बैठकर इस ज़िन्दगी का लुत्फ़ उठायें। तुम चले जाओगे, खुदा न ख़्वास्ता दुश्मनों को कुछ हो गया, तो मेरी ज़िन्दगी रोते ही गुज़रेगी। क्या हमारी ज़िन्दगी रोने ही के लिए है? मेरा दिल अभी दुनिया की लज़्ज़तों का भूखा है। जन्नत की खुशियों की उम्मीद पर इस ज़िन्दगी को कुर्बान नहीं करते बनता। हज़रत हुसैन की फ़तह तो होने से रही। पच्चीस हज़ार के सामने जैसे सौ, वैसे ही एक सौ एक।

वहब---आह नसीमा! तुमने दिल के सबसे नाजुक हिस्से पर निशाना मारा। मेरी भी यही दिली तमन्ना है कि हम किसी अाफ़ियत के गोशे में बैठकर ज़िन्दगी की बहार लूटें। पर ज़ालिम की यह बेदर्दी देखकर खून मे जोश आ जाता है, और दिल बेअख्तियार यही चाहता है कि चलकर हज़रत हुसैन की हिमायत में शहीद हो जाऊँ। जो आदमी अपनी आँखों से