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पृष्ठ:कर्बला.djvu/१६९

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कर्बला

[ वहब का प्रवेश ]

नसीमा---बड़ी देर की। अकेले बैठे-बैठे जी उकता गया। कुछ उन लोगों की खबर मिली?

वहब---हाँ नसीमा, मिली। तभी तो देर हुई। तुम्हारा ख़याल सही निकला। हज़रत हुसैन के साथ हैं।

नसीमा---क्या हज़रत हुसैन की फ़ौज आ गयी?

वहब---कैसी फ़ौज? कुल बूढ़े, जवान और बच्चे मिलाकर ७२ आदमी हैं। दस-पाँच आदमी कूफ़ा से भी आ गये हैं। कर्बला के बेपनाह मैदान में उनके खेमे पड़े हुए हैं। ज़ालिम ज़ियाद ने बीस-पच्चीस हज़ार आदमियों से उन्हें घेर रखा है। न कहीं जाने देता है, न कोई बात मानता है, यहाँ तक कि दरिया से पानी भी नहीं लाने देता। पाँच हज़ार जवान दरिया की हिफ़ाजत के लिए तैनात कर दिये हैं। शायद कल तक जंग शुरू हो जाय।

नसीमा---मुट्ठी-भर आदमियों के लिए २०-२५ हज़ार सिपाही! कितना ग़ज़ब है! ऐसा ग़ुस्सा आता है, ज़ियाद को पाऊँ, तो सिर कुचल दूँ।

वहब---बस, उसको यही ज़िद है कि यज़ीद की बैयत क़बूल करो। हज़रत हुसैन कहते हैं, यह मुझसे न होगा।

नसीमा---हजरत हुसैन नबी के बेटे हैं, क़ौल पर जान देते हैं। मैं होती, तो ज़ियाद को ऐसा जुल देती कि वह भी याद करता। कहती–--हाँ मुझे बैयत क़बूल है। वहाँ से जाकर बड़ी फ़ौज जमा करती, और यजीद के दाँत खट्टे कर देती। रसूल पाक को शरा में ऐसी अाफ़तों के लिए कुछ रियायत रखनी चाहिए थी। तो क्या हज़रत की फ़ौज में बड़ी घबराहट है?

वहब---मुतलक नहीं, नसीमा। सब लोग शहादत के शौक़ से मतवाले हो रहे हैं। सबसे ज्यादा तक़लीफ पानी की है। ज़रा-ज़रा-से बच्चे प्यासे तड़प रहे हैं।

नसीमा----आह जालिम! तुझसे खुदा समझे।

वहब---नसीमा, मुझे रुख़सत करो। अब दिल नहीं मानता। मैं भी