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पृष्ठ:कर्बला.djvu/१८

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हुसैन ने फिर अन्तिम बार सन्धि करने का प्रयास किया। उन्होंने उमर-बिन-साद को सँदेसा भेजा कि "आज तुम मुझसे रात को, दोनों सेनाओं के बीच में, मिलना ।” उमर निश्चित समय पर आया । हुसेन से उसकी बहुत देर तक एकान्त में बातें हुई । हुसैन ने सन्धि की तीन शत बतायीं-(१) या तो हम लोगों को मक्के वापस जाने दिया जाय, (२) या सीमा-प्रांत की ओर शान्ति-पूर्वक चले जाने की अनुमति मिले, (३) या मैं यजीद के पास भेज दिया जाएँ । उमर ने ओबैदुल्लाह को यह शुभ सूचना सुनायी, और वह उसे मानने के लिए तैयार भी मालूम होता था; किन्तु शिमर ने जोर दिया कि दुश्मन चंगुल में आ फँसा है, तो उसे निकलने न दो, नहीं तो उसकी शक्ति इतनी बढ़ जायगी कि तुम उसका सामना न कर सकागे। उमर मजबूर हो गया।

मोहर्रम की हवीं तारीख को, अर्थात् हुसैन की शहादत से एक दिन पहले, कूफा के देहातों से कुछ लोग हुसैन की सहायता करने आये । ओबैदुल्लाह को यह बात मालूम हुई, तो उसने उन आदमियों को भगा दिया, और उमर को लिखा-"अब तुरन्त हुसैन पर आक्रमण करो, नहीं तो इस टाल-मटोल की तुम्हें सजा दी जायगी।" फिर क्या था; प्रातःकाल बाइस हजार योद्धाओं की सेना हुसैन से लड़ने चली । जुगुनू की चमक बुझाने के लिए मेघ-मंडल का प्रकोप हुआ।

हुसैन को मालूम हुआ, तो वह घबराये । उन्हें यह अन्याय मालूम हुआ कि अपने साथ अपने साथियों के भी प्राणों की आहुति दें। उन्होंने इन लोगों को इसका एक अवसर देना उचित समझा कि वे चाहें, तो अपनी जान बचायें, क्योंकि यजीद को उन लोगों से कोई शत्रुता न थी। इसलिए उन्होंने उमर साद को पैगाम भेजा कि हमें एक रात के लिए मोहलत दो । उमर ने अन्य सेनानायकों से परामर्श करके मोहलत दे दी। तब हजरत हुसैन ने अपने समस्त सहायकों तथा परिवारवालों को बुलाकर कहा-"कल जरूर यह भूमि मेरे