भागनेवालों का पता लगायें । कई सिपाही इस प्रकार जान से मार डाले गये । यह चाल ठीक पड़ी। भगोड़े भयभीत होकर फिर सेना में जा मिले।
इस संग्राम में सबसे घोर निर्दयता जो शत्रुओं ने हुसैन के साथ की वह पानी का बन्द कर देना था। ओबैदुल्लाह ने उमर को कड़ी ताक़ीद कर दी थी कि हुसैन के आदमी नदी के समीप न जाने पायें । यहाँ तक कि वे कुएँ खोदकर भी पानी न निकालने पायें । एक सेना करात-नदी की रक्षा करने के लिए भेज दी गयी। उसने हुसैन की सेना और नदी के बीच में डेरा जमाया। नदी की ओर जाने का कोई रास्ता न रहा । थोड़े नहीं, छः हजार सिपाही नदी का पहरा दे रहे थे। हुसैन ने यह ढंग देखा तो स्वयं इन सिपाहियों के सामने गये, और उन पर प्रभाव डालने की कोशिश की। पर उन पर कुछ असर न हुआ। लाचार होकर यह लौट आये। उस समय प्यास के मारे इनका कंठ सूखा जाता था, स्त्रियाँ और बच्चे बिलख रहे थे; किन्तु उन पाषाण-हृदय पिशाचों को इन पर दया न आती थी।
शहीद होने के तीन दिन पहले हुसैन और अन्य प्राणी प्यास के मारे बेहोश हो गये । तब हुसैन ने अपने प्रिय बन्धु अब्बास को बुलाकर, उन्हें बीस सवार तथा तीस पैदल देकर, उनसे कहा-"अपने साथ बीस मश्कें ले जाओ, और पानी से भर लाओ।" अब्बास ने सहर्ष इस आदेश को स्वीकार किया। वह नदी के किनारे पहुँचे । पहरेदार ने पुकारा-"कौन है ?” इधर उस पहरेदार का एक भाई भी था । वह बोला-"मैं हूँ, तेरे चाचा का बेटा, पानी पीने आया हूँ।" पहरेदार ने कहा-"पी ले ।" भाई ने उत्तर दिया-"कैसे पी लूँ ? जब हुसैन और उनके बाल-बच्चे प्यासों मर रहे हैं, तो मैं किस मुँह से पी लूँ ?" पहरेदार ने कहा-"यह तो जानता हूँ, पर करूँ क्या, हुक्म से मजबूर हूँ !" अब्बास के आदमी मश्के लेकर नदी की ओर गये, और पानी भर लिया। रक्षक-दल ने इनको रोकने की चेष्टा की, पर ये लोग पानी लिये हुए बच निकले।