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कर्बला

शहरबानू---देखो, हाय-हाय, दोनो को दुश्मनों ने किस तरह घेर रखा है। कोई जाकर बेचारों को फेर भी नहीं लेता। शब्बीर भी बैठे तमाशा देख रहे हैं, यह नहीं कि किसी को भेज दूँ। हैं तो ज़रा-ज़रा से, पर कैसे मछलियों की तरह चमकते फिरते हैं! खैर, अच्छा हुआ, अब्बास दौड़े जा रहे हैं।

[ अब्बास का मैदान की तरफ़ दौड़े हुए आना। ]

जैनब---( खेमे से निकलकर ) अब्बास, तुम्हें रसूल पाक की क़सम है, जो उन्हें लौटाने जाअो। हाँ, उनका दिल बढ़ाते जाओ। क्या मुझे शहादत के सवाब में कुछ भी देने का इरादा नहीं है? भैया तो इतने खुदग़रज़ कभी न थे!

[ दोनों भाई मारे जाते हैं। हुसैन और अब्बास उनकी लाश उठाने जाते हैं, और जैनब एक आह भरकर बेहोश हो जाती। ]


पाँचवाँ दृश्य

[ १२ बजे रात का समय। लड़ाई ज़रा देर के लिए बन्द है। दुश्मन की फ़ौज गाफ़िल है। दरिया का किनारा। अब्बास हाथों में मशक लिये दरिया के किनारे खड़े हैं। ]

अब्बास---( दिल में ) हम दरिया से इतने क़रीब हैं। इतनी ही दूर पर यह दरिया मौज़े मार रहा है, पर हम पानी के एक-एक बूँद को तरसते हैं। दो दिन से किसी के मुँह में पानी का क़तरा नहीं गया, बच्चे वगैरह पानी के लिए बिलबिला रहे हैं, औरतों के लब खुश्क हुए जाते हैं, खुद हज़रत हुसैन का बुरा हाल हो रहा है। मगर कोई अपनी तकलीफ़ किसी से नहीं कहता। बेचारी सकीना तड़प रही थी। काश ये ज़ालिम इसी तरह ग़ाफ़िल पड़े रहते, और मैं मशक लिये हुए बचकर निकल जाता! जी चाहता है, दरिया-का-दरिया पी जाऊँ, पर गैरत गवारा नहीं करती कि घर के सब आदमी तो प्यासों मर रहे हों, और मैं यहाँ अपनी प्यास बुझाऊँ। घोड़े ने भी पानी में मुँह नहीं डाला। वफ़ादार जानवर! तू हैवान होकर इतना गैरतमंद है, मैं इन्सान, होकर बेग़ैरत हो जाऊँ।