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पृष्ठ:कर्बला.djvu/२०

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नहीं है ! किसकी आँखों ने यह अलौकिक दृश्य देखा होगा कि ७२ आदमी बाइस हजार योद्धाओं के सम्मुख खड़े हुसैन के पीछे सुबह की नमाज़ इसलिए पढ़ रहे हैं कि अपने इमाम के पीछे नमाज पढ़ने का शायद यह अन्तिम सौभाग्य है। वे कैसे रणधीर पुरुष हैं, जो जानते हैं कि एक क्षण में हम सब-के-सब इस आँधी में उड़ जायेंगे, लेकिन फिर भी पर्वत की भाँति अचल खड़े हैं; मानो संसार में कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो उन्हें 'भयभीत कर सके । किसी के मुख पर चिन्ता नहीं है, कोई निराश और हताश नहीं है । युद्ध के उन्माद ने, अपने सच्चे स्वामी के प्रति अटल विश्वास ने, उनके मुख को तेजस्वी बना दिया है। किसी के हृदय में कोई अभिलाषा नहीं है। अगर कोई अमिलाषा है, तो यही कि कैसे अपने स्वामी की रक्षा करें। इसे सेना कौन कहेगा, जिसके दमन को बाइस हजार योद्धा एकत्र किये गये थे। इन बहत्तर प्राणियों में एक भी ऐसा न था, जो सर्वथा लड़ाई के योग्य हो । सब-के सब भूख-प्यास से तड़प रहे थे। कितनों के शरीर पर तो मांस का नाम तक नहीं था, और उन्हें बिना ठोकर खाये दो पग चलना भी कठिन था। इस प्राण-पीड़ा के समय ये लोग उस सेना से लड़ने को तैयार थे, जिसमें अरब-देश के वे चुने हुए जवान थे, जिन पर अरब को गर्व हो सकता था।

उन दिनों समर की दो पद्धतियाँ थीं-एक तो सम्मिलित, जिसमें समस्त सेना मिलकर लड़ती थी, और दूसरी व्यक्तिगत, जिसमें दोनों दलों से एक-एक योद्धा निकलकर लड़ते थे। हुसैन के साथ इतने कम आदमी थे कि सम्मिलित-संग्राम में शायद वह एक क्षण भी न ठहर सकते । अतः उनके लिए दूसरी शैली ही उपयुक्त थी। एक-एक करके योद्धागण समर-क्षेत्र में आने और शहीद होने लगे। लेकिन इसके पहले अन्तिम बार हुसैन ने शत्रुओं से बड़ी ओजस्विनी भाषा में अपनी निर्दोषिता सिद्ध की। उनके अन्तिम शब्द ये थे-

"खुदा की कसम, मैं पद-दलित और अपमानित होकर तुम्हारी शरण न जाऊँगा, और न मैं दासों की भाँति लाचार होकर यजीद की