पृष्ठ:कर्बला.djvu/२१

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खिलाफ़त को स्वीकार करूँगा। ऐ खुदा के बंदो ! मैं खुदा से शान्ति का प्रार्थी हूँ। और, उन प्राणियों से, जिन्हें खुदा पर विश्वास नहीं है, जो ग़रूर में अन्धे हो रहे हैं, पनाह माँगता हूँ।"

शेष कथा आत्म-त्याग, प्राण-समर्पण, विशाल धैर्य और अविचल बीरता की अलौकिक और स्मरणीय गाथा है, जिसके कहने और सुनने से आँखों में आँसू उमड़ आते हैं, जिस पर रोते हुए लोगों को १३ शताब्दियाँ बीत गयीं, और अभी अनन्त शताब्दियाँ रोते बीतेंगी।

हुर का जिक्र पहले आ चुका है। यह वही पुरुष है, जो एक हजार सिपाहियों के साथ हुसैन के साथ-साथ आया था, और जिसने उन्हें इस निर्जल मरुभूमि पर ठहरने को मजबूर किया था। उसे अभी तक आशा थी कि शायद ओबैदुल्लाह हुसैन के साथ न्याय करे। किन्तु जब उसने देखा कि लड़ाई छिड़ गयी, और अब समझौते की कोई आशा नहीं है, तो अपने कृत्य पर लज्जित होकर वह हुसैन की सेना से आ मिला। जब वह अनिश्चित भाव से अपने मोरचे से निकलकर हुसैन की सेना की ओर चला, तब उसी की सेना के एक सिपाही ने कहा-"तुमको मैंने किसी लड़ाई में इस तरह काँपते हुए चलते नहीं देखा।"

हुर ने उत्तर दिया-"मैं स्वर्ग और नरक की दुविधा में पड़ा हुआ हूँ, और सच यह है कि मैं स्वर्ग के सामने किसी चीज की हस्ती नहीं समझता, चाहे कोई मुझे मार डाले ।"

यह कहकर उसने घोड़े के एड़ लगाई, और हुसैन के पास आ पहुँचा । हुसैन ने उसका अपराध क्षमा कर दिया, और उसे गले से लगाया । तब हुर ने अपनी सेना को सम्बोधित करके कहा-"तुम लोग हुसैन की शर्ते क्यों नहीं मानते ? कितने खेद की बात है कि तुमने, स्वयं उन्हें बुलाया, और जब वह तुम्हारी सहायता करने आये, तो तुम उन्हीं को मारने पर उद्यत हो गये । वह अपनी जान लेकर चले भी जाना चाहते हैं, किन्तु तुम लोग उन्हें कहीं जाने भी नहीं देते ? सबसे बड़ा अन्याय यह कर रहे हो कि उन्हें नदी से पानी नहीं लेने