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कर्बला

हुसैन-आप मुझे कहाँ जाने की सलाह देते हैं ? मुह०-मेरे खयाल में मक्का से बेहतर कोई जगह नहीं है। अगर क़ौम ने तुम्हारी बैयत मंजूर की,तो पूछना ही क्या? वरना पहाड़ियों की घाटियाँ तुम्हारे लिए किलों का काम देंगी,और थोड़े-से मददगारों के साथ तुम आजादी से ज़िन्दगी बसर करोगे। खुदा चाहेगा,तो लोग बहुत जल्द यज़ीद से बेज़ार होकर तुम्हारी पनाह में आयेंगे।

हुसैन-अज़ीज़ों को यहाँ छोड़ दूँ ?

मुह०-हरगिज़ नहीं। सबको अपने साथ ले जाओ।

हुसैन यहाँ की हालात से मुझे जल्द-जल्द इत्तिला देते रहिएगा।

मुह०-इसका इतमीनान रखो।

[मुहम्मद हुसैन से गले मिलकर चले जाते हैं।]

अब्बास-भैया,अब तो घर चलिए,क्या सारी रात जागते रहिएगा ?

हुसैन-अब्बास, मैं पहले ही कह चुका कि लौटकर घर न जाऊँगा।

अब्बास-अगर आपकी इजाजत हो,तो मैं भी कुछ अर्ज करूँ। आप मुझे अपना सच्चा दोस्त समझते हैं या नहीं ?

हुसैन-खुदा पाक की कसम,तुमसे ज्यादा सच्चा दोस्त दुनिया में नहीं है।

अब्बास-क्यों न आप इस वक्त यजीद की बैयत मंजूर कर लीजिए ? खुदा कारसाज़ है,मुमकिन है,थोड़े दिनो में यजीद खुद ही मर जाय,तो आपको खिलाफत आप-ही-आप मिल जायगी। जिस तरह आपने मुआबिया के जमाने में सब किया,उसी तरह यज़ीद के जमाने को भी सब के साथ काट दीजिए। यह भी मुमकिन है कि थोड़े ही दिनों में यज़ीद के जुल्म से तंग आकर लोग बगावत कर बैठे,और आपके लिए मौका निकल आये। सब सारी मुश्किलों को आसान कर देता है।

हुसैन-अब्बास,यह क्या कहते हो ? अगर मैं खौफ़ से यजीद की बैयत कबूल कर लूँ,तो इस्लाम का मुझसे बड़ा दुश्मन और कोई न होगा। मैं रसूल को,वालिद को,भैया हसन को क्या मुँह दिखाऊँगा। अब्बाजान ने शहीद होना कबूल किया,पर मुत्राबिया की बैयत न मंजूर की। भैया ने