पृष्ठ:कर्बला.djvu/४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४७
कर्बला

हुसैन-बहन,इन्सान सारी दुनिया के ताने बरदाश्त कर सकता है, पर अपने ईमान का नहीं। अगर तुम्हारा यह खयाल है कि मेरे बैयत न लेने से इस्लाम में तफ़ा पड़ जायगा,तो यह समझ लो कि इत्तफाक कितनी ही अच्छी चीज़ हो,लेकिन रास्ती उससे कहीं अच्छी है। रास्ती को छोड़कर मेल को कायम रखना वैसा ही है,जैसे जान निकल जाने के बाद जिस्म कायम रखना। रास्ती कौम की जान है,उसे छोड़कर कोई कौम बहुत दिनों तक जिन्दा नहीं रह सकती। इस बारे में मैं अपनी राय कायम कर चुका, अब तुम लोग मुझे रुखसत करो। जिस तरह मेरी बैयत से इस्लाम का वकार मिट जायगा, उसी तरह मेरी शहादत से उसका वकार कायम रहेगा। मैं इस्लाम की हुरमत पर निसार हो जाऊँगा।

शहर०-(रोकर) क्या आप हमें अपने कदमों से जुदा करना चाहते हैं ?

अली अकबर-अब्बाजान,अगर शहीद ही होना है,तो हम भी वह दर्जा क्यों न हासिल करें ?

मुस्लिम-या अमीर,हम आपके कदमों पर निसार होना ही अपनी जिन्दगी का हासिल समझते हैं। आप न ले जायँगे,तो हम जबरन् आपके साथ चलेंगे।

अली असगर-अब्बा,मैं आपके पीछे खड़ा होकर नमाज़ पढ़ता था। आप यहाँ छोड़ देंगे,तो मैं नमाज़ कैसे पहुँगा ?

जैनब–भैया,क्या कोई उम्मीद नहीं है ? क्या मदीने में रसूल के बेटे पर हाथ रखनेवाला,रसूल की बेटियों की हुरमत पर जान देनेवाला,हक पर सिर कटानेवाला कोई नहीं है ? इसी शहर से वह नूर फैला,जिससे सारा जहान रोशन हो गया। क्या वह हक़ की रोशनी इतनी जल्द गायब हो गयी ? आप यहीं से हिजाज और यमन की तरफ कासिदों को क्यों नहीं रवाना फरमाते।

हुसैन-अफ़सोस है जैनब,खुदा को कुछ और ही मंजूर है। मदीने में हमारे लिए अब अमन नहीं है। यहाँ अगर हम अाजादी से खड़े हैं,तो यह वलीद की शराफ़त है। वरना यजीद की फ़ौजों ने हमको घेर लिया