अली अस॰--मुझे भूख नहीं है। पहले मालूम होती थी, लेकिन अब ग़ायब हो गयी है।
हुसैन---तो तुम यहीं रहो कि तुम्हें भूख ही न लगे।
हबीब--या हज़रत, आप भी जरा आराम फ़रमा लें। हमारी बहुत दिनों से तमन्ना है कि आपके पीछे खड़े होकर नमाज़ पढ़ें।
[ जुबेर और अब्बास को छोड़कर सब लोग वज़ू करने चले जाते हैं। ]
हुसैन--–क्यों जुबेर, यहाँ के लोगों के क्या ख़यालात हैं?
जुबेर---कुछ न पूछिए, मुझे यहाँ की कैफ़ियत बयान करते शरम आती है। यों ज़ाहिर में तो सब-के-सब आप पर निसार होने के लिए क़सम खायेंगे, बैंयत लेने को भी तैयार नज़र आयेंगे, मगर दिल किसी का भी साफ नहीं।
हुसैन---क्या दग़ा का अंदेशा है?
जुबेर---यह तो मैं नहीं कह सकता, क्योंकि कोई ऐसी बात देखने में नहीं आयी, लेकिन इधर-उधर की बातों से पता चलता है कि इनकी नीयत साफ़ नहीं। अजब नहीं कि यज़ीद दौलत और जागीर का लालच देकर इन्हें मिला ले। उस वक़्त यह ज़रूर आपके साथ दगा कर जायँगे। मैं तो आपको यही सलाह दूँगा कि आप मदीने वापस जायँ।
हुसैन---मुझे तो इनकी तरफ़ से दग़ा का गुमान नहीं होता। दग़ा में एक झिझक होती है, जो यहाँ किसी के चेहरे पर नज़र नहीं आती। दग़ा उसी तरह शक पैदा कर देती है, जैसे हमदर्दी एतबार पैदा करती है।
जुबेर---मगर आपको यह भी तो मालूम होगा कि दग़ा गिरगिट की तरह कभी अपने असली रंग में नहीं दिखाई देती। वह हाथों का बोसा लेती है, पैरों-तले आँखें बिछाती है, और बातों से शकर बरसाती है।
अब्बास---दोस्त बनकर सलाह देती है, खुद किनारे पर रहती है, पर दूसरों को दरिया में ढकेल देती है। आप हँसती है, पर दूसरों को रुलाती है, और अपनी सूरत को हमेशा ज़ाहिद के लिबास में छिपाये रहती है।
जुबेर---खुदा पाक की क़सम, आप मेरी तरफ इशारा कर रहे हैं। अगर आप जानते कि मैं हज़रत हुसैन की कितनी इज़्ज़त करता हूँ, तो मुझ