पृष्ठ:कर्बला.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
दूसरा अङ्क
पहला दृश्य

[ हुसैन का क़ाफ़िला मक्का के निकट पहुँचता है। मक्का की पहाड़ियाँ नज़र आ रही हैं। लोग काबा की मसजिद के द्वार पर हुसैन का स्वागत करने को खड़े हैं। ]

हुसैन---यह लो, मक्का शरीफ़ आ गया। यही वह पाक मुक़ाम है, जहाँ रसूल ने दुनिया में कदम रखे। ये पहाड़ियाँ रसूल के सिजदों से पाक और उनके आँसुओं से रोशन हो गयी हैं। अब्बास, काबा को देखकर मेरे दिल में अजीब-सी धड़कन हो रही है, जैसे कोई ग़रीब मुसाफ़िर एक मुद्दत के बाद अपने वतन में दाखिल हो।

[ सब लोग घोड़ों से उतर पड़ते हैं। ]

जुबेर---आइए हज़रत हुसैन, हमारे शहर को अपने क़दमों से रोशन कीजिए।

[ हुसैन सबसे गले मिलते हैं । ]

हुसैन---मैं इस मेहमानेवाजी के लिए आपका मशकर हूँ।

जुबेर---हमारी जानें आप पर निसार हों। आपको देखकर हमारी आँखों में नूर आ गया है, और हमारे कलेजे ठंडे हो गये हैं। खुदा गवाह है, अापने रसूल पाक ही का हुलिया पाया है। आइए, काबा हाथ फैलाये आपका इन्तज़ार कर रहा है।

[ सब लोग मस्जिद में दाखिल होत हैं। स्त्रियाँ हरम में जाती हैं। ]

अली असग़र---अब्बा, इन पहाड़ों पर से तो हमारा घर दिखाई देता होगा?

हुसैन---नहीं बेटा, हम लोग घर से बहुत दूर आ गये हैं। तुमने कुछ नाश्ता नहीं किया?