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कर्बला

मेरे सीरो की इलाही ख़ैर हो,
है बहुत मुज़तर दिले दीवाना आज।
मुहतसिब का डर नहीं 'बिस्मिल' तुम्हें,
सूए-मस्जिद जाते हो रंदाना आज।

[एक क़ासिद का प्रवेश।]

क़ासिद—अस्सलाम अलेक या इमाम, बिन ज़ियाद ने मुझे कूफ़ा से आपकी ख़िदमत में भेजा है।

यज़ीद—ख़त लाया है?

क़ासिद—ख़त इस ख़ौफ़ से नहीं लाया कि कहीं रास्ते में बाग़ियों के हाथों में गिरफ़्तार न हो जाऊँ।

यज़ीद—क्या पैग़ाम लाया है?

क़ासिद—बिन ज़ियाद ने गुज़ारिश की है कि यहाँ के लोग हुज़ूर की बैयत क़बूल नहीं करते, और बग़ावत पर आमादा हैं। हुसैन बिन अली को अपनी बैयत लेने को बुला रहे हैं। तीन क़ासिद जा चुके हैं, मगर अभी तक हुसैन आने पर रज़ामन्द नहीं हुए, अब शहर के कई रऊसा ख़ुद जा रहे है।

यज़ीद—बिन जिय़ाद से कहो, जो आदमी मेरी बैयत न मंज़ूर करे, उसे क़त्ल कर दे। मुझसे पूछने की ज़रूरत नहीं।

रूमी—दुश्मन के साथ मुतलक़ रियायत की ज़रूरत नहीं। ज़ियाद को चाहिए कि तलवार का इस्तेमाल करने में दरेग़ न करे।

हुर—मुझे ख़ौफ़ है कि बग़ावत हो जायगी।

रूमी—सज़ा और सख़्ती यही हुकूमत के दो गुर हैं। मेरी उम्र बादशाहत के इन्तज़ाम ही में गुज़री है, इससे बेहतर और कारगर कोई तदबीर न नज़र आयी। ख़ुदा को भी अपना निज़ाम क़ायम रखने के लिए दोज़ख़ की ज़रूरत पड़ी। दोज़ख़ का ख़ौफ़ ही दुनिया को आबाद रखे हुए है। उसका रहम और इन्साफ़ फ़क़ीरों और बेकसों की तसकीन के लिए है। ख़ौफ़ ही सल्तनत की बुनियाद है। नरमी से सल्तनत का वक़ार मिट जाता है, लोग सरकश हो जाते हैं, फ़साद का बाज़ार गर्म हो जाता है। ज़ियाद से