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दायित्व मुझपर है। इसके बन्द हो जाने पर मेरी बदनामी होगी। अगर तुम इसके संचालन का कोई स्थाई प्रबन्ध कर सकते हो, तो मैं आज इस्तीफ़ा दे सकता हूँ; लेकिन बिना किसी आधार के मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं इतना पक्का आदर्शवादी नहीं।

अमरकान्त ने अभी सिद्धांत से समझौता करना न सीखा था। कार्यक्षेत्र में कुछ दिन रह जाने और संसार के कड़वे अनुभव हो जाने के बाद हमारी प्रकृति में जो ढीलापन आ जाता है, उस परिस्थिति में वह न पड़ा था। नवदीक्षितों को सिद्धांत में जो अटल भक्ति होती है, वह उसमें भी थी। डाक्टर साहब में उसे जो श्रद्धा थी, उसमें जोर का धक्का लगा। उसे मालूम हआ, वह केवल बातों के वीर हैं, कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं, जिसका खुले शब्दों में यह आशय है, कि वह संसार को धोखा देते हैं। ऐसे मनुष्य के साथ वह कसे सहयोग कर सकता है ?

उसने जैसे धमकी दी--तो आप इस्तीफा नहीं दे सकते?

'उस वक्त तक नहीं, जब तक धन का कोई प्रबन्ध न हो।'

'तो ऐसी दशा में मैं यहाँ काम नहीं कर सकता।'

डाक्टर साहब ने नम्रता से कहा--देखो अमरकान्त, मुझे संसार का तुमसे ज्यादा तजरबा है, मेरा इतना जीवन नये-नये परीक्षणों में ही गुजरा है। मैंने जो तत्व निकाला है, यह है कि हमारा जीवन समझौते पर टिका हुआ है। अभी तुम मुझे जो चाहे समझो; पर एक समय आयेगा, जब तुम्हारी आँखें खुलेंगी और तुम्हें मालूम होगा कि जीवन में यथार्थ का महत्व आदर्श से जी-भर भी कम नहीं।

अमर ने जैसे आकाश में उड़ते हए कहा--मैदान में मर जाना मैदान छोड़ देने से कहीं अच्छा है। और उसी वक्त वहाँ से चल दिया।

पहले सलीम से मुठभेड़ हुई। सलीम इस शाला को मदारी का तमाशा कहा करता था, वहाँ जादू की लकड़ी छुआ देने से ही मिट्टी सोना बन जाती है। वह एम० ए० की तैयारी कर रहा था। उसकी अभिलाषा थी कि कोई अच्छा सरकारी पद पा जाय और चैन से रहे। सुधार और संगठन और राष्ट्रीय आन्दोलन से उसे विशेष प्रेम न था। उसने यह खबर सुनी तो खुश होकर कहा--तुमने बहुत अच्छा किया, निकल आये। मैं डाक्टर साहब को

कर्मभूमि
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